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प्रेमघन सर्वस्व


"सैयाँ आवन की भई बेरियाँ री, गुइयाँ दरबजवा लागी रहूँ" 'अब मोसो प्रीत क्यों लगाई रे, सावरे कंधैया, मैं तो गाली दूंगी तोको छाँड़ दे कलाई" "कहीं,—आजकल जोशे जुनूं है तेरे दीवाने पर। "वज़ाहिर तो लगावट हम से वो हर वार करते हैं, मगर दिल में खुदा जाने किसे वह प्यार करते है"—"हमारी आह की तासीर देखो "हे शरुव शितमगर मेहिलकात कौन है" व मेरे पहलू से उठ गये हैं इधर की दुनिया उधर हुई है। कयामत आई है या इलाही य, आज कैसी सहर हुई है। कहीं कंहरवा मचा है, और मुग्धा वेश्याये टोपी पहने कमर लचका लचका कर अपने प्रेमियों को हलाल सी करती ,गाती—"मोर मातल कहरवा जाल बीने जाल॰"—"मुह चूमै न देवै बिना झूलनी" " न जा बालम परदेसवाँ मोरे राजा" "लरिकैयाँ नदान लरिकैयाँ नदान" "हाँ हाँ रे कटरिया नैनों की लागी रे कटरिया—"कह सेजरिया पर रात रही। माथे के दिया जात रही" और फिर कहीं—"वैराग जोग कठिन ऊधो हम न करब हो"—"हे गोबिन्द राखु शरण अब तो जीवन हारे॰"—नाम को अधार तेरे नाम को अधारा" हो रहा है, मानो रात भर के चञ्चल चित्त को फिर स्थिर करने वा शृंगारादि रस श्रवण से उत्पन्न सांसारिक प्रेम विकार को शान्ति रस सलिल से परिमार्जिजत कर सज्जनों के मन को अब पुनः पवित्र कर पारमार्थिक कर पवित्र प्रेम के योग्य बना उस सच्चे प्रीत-पात्र की प्रीति का महामंत्र सा दिया जा रहा है। श्रब सच्चे रसिक भला यह सुनकर कब ठहर कर फिर कोई दूसरा शब्द सुनने को बैठे रहते, निदान चुनिन्दे चतुर चलने लगे, अपने लोग भी उठे और अपनी नौका हटा, घाट की ओर प्रस्थान किया।

आहा आहा हा उत्तरा विमुख होते ही मानों उत्तराखण्ड ही में पहुँच गये। जहाँ तक दृष्टि दौड़ती है एक अद्भत पवित्र दृष्य दृष्टिगोचर हो रही है, मानों आज काशी कैलाश का विलास कर रही है। श्री मन्दाकिनी के सुचिक्कण शिलासोपान विनिर्मित विशाल घाटों के ऊपर प्रस्थरमय असंख्य सप्तभूमि हयं, प्रासाद और मन्दिर पर्वत श्रेणी के समान अनुमान होते,जिनकी सुधा धवलित अट्टालिकाये और संगमरमर के बंगले हिमाचल के हिमाच्छादित शृंग की सी शोभा धारण किये हैं। शिवालयों के उच्चतम भागमें नम स्पी स्वर्णादि धातु विनिर्मित कलश और कंगूरों के वृन्द त्रिशूल धारण किये, मानों हाथ उठाये कह रहे हैं—कि त्रिताप शमन कारी, त्रिजन्म पाप हारी.,स्थल त्रिलोक में केवल एक यही त्रिलोचन त्रिपुरारि पुरी ही है, और सुनहरी