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प्रेमघन सर्वस्व

है जो यहाँ सदैव निवास करते और नित्य इस आनन्द को देखते। किसी ने सच कहा है कि—

"चना चबैना गङ्गाजल, जो पुरवै करतार।
काशी कबहुँ न छोड़िये विश्वनाथ दार"

अब अपनी नौका ईप्सित घाट पर आई, हम लोग नाब से उतर गाड़ी पर चढ़े उस बिछड़े मित्र के न मिलने का पश्चाताप करते अपने बनारसी मित्र के साथ जा उन्हीं के घर फिर धमके।

पाँच बजे सन्ध्या को सुस्वादु गुलाबी बूटी के रंग से फिर गुलाबी आँखें कर यार लोग श्री गङ्गाजी के घाट पर पा इटे, कल मंगल था, आज दंगल का दिन है, अर्थात् दिन के मध्यानोपरांत से पुनः मेले का प्रारम्भ होकर अर्थ रात्रोपरांत समाप्त होता, और इसकी संध्या की शोभा मानो मेले भर का सारांश है, इसीसे आज गंगाजी की धारा के अतिरिक्त घाट पर भी आनन्द की हाट लगी है, अर्थात् जल और स्थन्न दोनों स्थान पर मेला जम रहा है, वरञ्च जो लहर आज स्थल पर है, जल पर नहीं, क्योंकि वे लोग भी जो कि नाव पटैया के मेले में नहीं भी सम्मिलित होना चाहते, बाट पर से एक दृष्टि उसकी शोभा देखने को आ इटते, यों ही अनेक नौकारोहण भीरू और लड़के वाले लोग, तथा जिनका कहीं सुबीते से नाव का सेढ़ा नहीं लगा वाटिका निकालने में असमर्थ और ठस लोग भी अआकर घाटियों के तख्ते, मढ़ी और घाट के बुओं को दखल कर बैठते जिनमें प्रायः सभी प्रकार के लोग अपनी शक्ति और मर्यादा के अनुसार सुन्दर वस्त्रालङ्कार से सुसजित होते हैं। बहुतेरे बनारसी नवयुवक छैले जिनके सुन्दर मुखारबिन्द्र पर कलित कामदार टोपियों से लसित धुंबरवाली काली कुन्तलावलि मानो मलिन्द माला सी मनोहर मालूम होतो, सईई, सन्दली, शक्ती, कारी, मोतियई, खसखसी, कपासी, गुलावासो, गुलाबी और यात्री बनारसी दुपट्टों जिनसे गुलाम और खस के इत्र की सुगन्ध फैल रही है, गले में डाले मान बहार में खिले नाना रंग के फूलों की बहार दिखलाते तटस्थ तम्बोलियों की दुकानों पर ऐठे बैठे आँखें लड़ा रहे हैं। कहीं सर्व कहीं सर्च कदों की कतार, तो कहीं चश्मि नर्गिस का दीदार, कहीं गुल रुखों की भरमार, तो कहीं बुलबुल से बेकरार नाशिक जार माँति भाँति की बोलियाँ बोल रहे हैं। वाह! क्या बहार है। मानो इस बहार के मौसिम का यह मेला भी गुलजार पर बहार[१]है। अनेक


  1. भारतेन्दु के एक गीत की पुस्तक का नाम था।