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बनारस का बुढ़वा मंगल

रसीले मेले का सर्वांश रस चूसते इधर से उधर डोलते फिरते, तो कितने ही किसी एक ही के मुखारबिन्द पर टकटकी लगाये मानों कंठगत प्राण से हो रहे हैं। न इतनी मोड़ केवल तट के तल भाग ही पर है, वरञ्च घाट के ऊपर के पँचतल्ले और सततल्ले मन्दिर और महलों की अट्टालिकाओं पर भी वैसा ही नर नारियों का समूह सुशोभित हो रहा है। विशेषतः ऊपरी भाग तो केवल सुन्दरियों ही के सौन्दर्य से भरापुरा हैं। कोई तो चिक लगी खिड़कियों में बैठी अपने लोललोचना की या चारों ओर फेरती मानो शैलावलि के मध्य सफरी सी नचा रही हैं. कोई काँच की किबाड़ियों से जल निमग्न प्रफुल्ल जलज के समान अपने अमन्द वदन की दुति दिखलाती; और कोई अपने घंघट की ओट से निहारती मानों मोहनी मूठ सी मारती हैं। अनेक जो अपने असित अलकावलि बिखेरे, श्याम घन घेरे, मयत से मुख पर मुलकुराहट की छवि से दामिनी सी दमका रही हैं तो बहुतेरी उच्चतम अटारी पर जा प्रत्यक्ष कटाक्षों की कटारी चला रही है। यदि अनेक मेले के मनुष्यों को देख लज्जा से आँखें नीची करती; तो कोई अपनी तनीक भी तनिक और भी सनैनी कर कितनेह को मार डालती हैं। यदि कोई सुकुमारी सुन्दरी अपने अनूप रूप को भिक्षा देने में उचित भिन्नक से भी कृपणता दिखलाती, तो कोई करंग लोचनी किसी नवयुवकस चक्षचार हात ही धूरकर उसका चिन्त चूर चूर कर रही हैं अहाहा! यह याज कैसा अद्भुत शोभा का समुद्र उमड़ रहा है। अरे यह तो मानो बमा की विचित्र रचना चातुरी के प्रदर्शन का मेला है, या महाराज मनोज के मन बहलाने के लिये अपूर्व मोना बाजार लगाई गई है।

"नज़र आती हैं हर सू सूरतें ही सूरतें मुझको।
कोई आईनाखाना कारखाना है खुदाई का॥"

जल व थल पर्यन्त जहाँ पर दृष्टि फैलाइये, चारों और केवल स्त्री और पुरुषों का मुख ही मुख लखाई पड़ता है, और सच तो यह है कि काशी का नाम आनन्द' बन कदाचित आज ही चरितार्थ हो रहा है।

यह बुढ़वा मंगल का मेला क्या वस्तुतः बुद्धका बाबा महादेव का मंगल विवाह का मेला ही है, और यह दंगल (भारी भीड़) कदाचित् बारात वा सोहगी निकलने का समय है, जिसे देखने के लिये ये देवदारा और गन्धर्व कन्याय अपना ऊत्री यह निकाया पर चढ़ा है! आगंगा जी की सबनीयाएँ मानो नानाबाराता देवताश्री के विमान है, जो अभी श्राकाश से उतर रहे हैं, क्योकि आगे बही यह मारपङ्खा देव सेनानी भगवान मयूर वाहन के मयूर