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बनारस का बुढ़वा मंगल

इसके स्वामी होने ही का प्रत्यक्ष प्रमाण देते, वरञ्च वस्तुतः काशिराज होने की मर्यादा का भी पालन करते और अपनी प्रजा में मिल कर आनन्द मनाते तथा उन्हे उत्साहित करते हैं।

अब तो सन्ध्या हो गई, चारों ओर दीपावलियाँ प्रज्वलित हो गई अपने लोग भी दशाश्वमेध घाट से घाटही घाट घूमते आकर पञ्चगङ्गा घाट पर पहुँचे, पैर भी थक रहे, पर यह मन तनिक भी तृप्त न हुआ। कहता है, कि स्थल का मेला तो खूब देखा अब जल के मेला देखने की बेला आई, अत वहीं चलो, क्यों कि यहाँ तो अब केवल बँधे तार वाले लोगों ही का काम है। "लिये फिरता है मुझको जा बजा दिल। मेरा वे होश मेरा चल बुला दिल।" अस्तु, फिर डोंगी पर चढ़ आगे बढ़े, वाह! यह गङ्गाजी में आधी दूरतक पुल कैसा बंध गया। नही। यह वही श्री मन्महाराज गोस्वामी श्री बालकृष्ण लाल जी काँकरौली अधीश्वर का कच्छा है। ओहो! यह कितने कच्छे एक में पटे हैं? कदाचित् २० होंगे। क्योंकि दोनों ओर इसके दो नृत्यशाला बनी हैं, जिसमे एक तो श्वेत, ठीक श्री काशिराज के सुल्य, और दूसरी गुलाबी रग की, एक नवीन ही छटा छहरा रही है, और दोनों के बीच मे कुछ नजरबाग और खुले चबूतरे की बनावट है धन्य-धन्य यह अलौकिक रचना और समारम्भ। हाँ यह लोकोक्ति तो प्रसिद्ध ही है कि वक्षम कुल के गोस्वामि, महानुभाओ के घर मे सदा अचल रूप से लक्ष्मी जी ने निज निवास का वरदिया है। यह कोई आश्चर्य का विषय नहीं जब कि लक्ष्मीनाथ की रसीली लीला ही का वह स्थान है, फिर भला ऐसे लक्ष्मी कृपा पात्र और जिनकी आँखों मे उन्ही की ललित लीला का ध्यान है, उनके इस लीला रचना की लीला लिखने में कैसे सकती है। यह कितनी मोम बत्तियाँ जला दी गई कि इतना अधिक प्रकाश हो गया। वाह, इन लाल महतावों का उजाला तो मानो समस्त उजाले को रङ्ग कर, लाल कर दिया, और होली का दृश्य आगे आ गया है। यह विद्युत प्रभा कैसी। और यह ठीक ही विद्युत प्रभा कैसी (बिजली की रोशनी) है, जो कि कई सौ रुपये रोज पर कलकत्ते से भगाई गई है भई! थाह यह तो सबी को दबा बैठी अहा! घाटों की अँटारियों पर तो इसने जाकर वह कार्य किया है, कि जो दिन में भी दुर्लभ था! यह प्रभाता चन्द्र मुखियों के मुख पर पड़ कुछ और ही जीला

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