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प्रेमघन सर्वस्व

दिखलाती है, इसकी चमक की चौंधी से उनके चञ्चल चनुचञ्चरीक जो करघुण्डरीक की ओट में जा छिपते, तो मानों चन्द्र ग्रहण सा लग जाता है। कितनी उस चमक के पड़ते ही चमक कर स्वयम् चञ्चला सी चलदेती; और दर्शकों के चित्त पर चञ्चला की चोटसी चला देती। यों ही कितनियों को इस दामिनी की चमक दमक में अपने दामिनी की दुति को भी दबाने वाली बदन की दीप्ति के दिखाने को और भी सुबीता होता। सच तो यह है कि इस समय यह बिजली की रोशनी दूरबीन का कार्य दे रही है अथवा जैसे किसी सुवृहत् दृश्य के छाया चित्र की विचित्रता देखने को सूक्ष्म-दर्शक दर्पण, कि बीच धारा में बैठे उस लालटेन के तनिक घुमाने से सहजही सब की शोभा लखाई पड़ती है।

अच्छा चलो उसी गुलाबी, कच्छे पर चलें, और वहाँ की भी छवि देखें, परन्तु वहाँ तो इतनी नौकाएँ चारों ओर घेरे हैं, कि पहुँचना भी कठिन है। यह किसकी किश्ती है। इसके बीच में क्या कुंअर सञ्चित प्रसाद जी है? हाँ इधर ही तो देखते भी हैं! "आइये आइये बस चले आइये! कल भी आप लोग नहीं आये कहाँ रहे?" चलो, माई कुंचर साहिब ही की आशा का प्रथम पालन हो; यह कहते जो हम लोग उनकी नौका पर जा पहुँचे तो देखते है, कि कई वेश्याएँ वहाँ पर नृत्य कर रही थीं और उनके रूप यौवन पर बनारसी लोग लट्टू हुए, उनकी आरसी सी स्वच्छ सूरत के आरसी में अपने बर्बादी और मिट्टी में मिलने की सूरत देख रहे हैं। वाह! यह भाँड लोग जो गा रहे हैं, बड़े चतुर हैं, उनके ढोटे की नाच और भाव का तो कहना ही क्या है, "खुदा आबाद रक्खे लखनऊ फिर भी गनीमत है"। अहा अब इस ऊँचे बजड़े पर से जो कि कांकरौली वाले महाराज के गुलाबी कच्छे से सटा बँधा है, निकट से कच्छे की शोभा कुछ अपूर्व ही देख पड़ने लगी है; उफ! बहुत ही बड़ी नृत्य शाला बनी है! यह गुलाबी पट मन्डप जिसकी झालर, खम्में, और जंगले आदि सब गुलाबी ही रङ्ग के हैं, अधिकाई से उत्तमोसम और बहुमूल्य इतने झाड़ फ्रानुस तथा शीशा पालात और राजसी ठाट से सुसज्जित है; मानो सुरेन्द्र राज भवन की तुल्यता प्राप्त किया चाहता है, अथवा सहस्रों प्रज्वलित दीप शिखाओं के प्रकाश से जगमगाता मानो असंख्य तारागणों से देदीप्यमान शरदाकाश की शोभा धारण कर रहा है, जिसमें, मङ्गल, बुद्ध, वृहस्पति, और शुक्र का भौति रङ्ग-बिरङ्गी महताबों का द्वाब, और सच्चे महताब के तुल्य बिजली की रोशनी है।