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प्रेमघन सर्वस्व

वा उनकी बड़ाई की कुछ भी चर्चा छेड़नी, मानो इस बढ़ते प्रबंध को बड़ा ग्रंथ ही बनाना है, अतः उसको दूर से प्रणाम कर, यदि इस भारी समारम्भ के वर्णन में भी चित्त प्रवृत होता है, तो भी वही भय आगे आ उपस्थित होता है। अहा, क्या कहना है! सभी वस्तु अदृष्टपूर्व दृष्टिगोचर हो रही है, क्या राज श्री और धर्म श्री परस्पर मिल कर अपनी उन्वित ,सीमा के अन्तर्गत अनिर्वचनीय शोभा का आविर्भाव कर रही है। क्या रस और मर्यादा का संगम सुहावना लग रहा है कैसे कैसे महामहिमावान, धनवान, विद्वान और गुणवान जन निजसन्मान को भूल दास्य भाव अंगीकार किये संसार को भक्ति भरे भारत के धर्म गौरव को दरसाते विनीत बैठे हैं। अनेक वल्लभीय वैष्णव लोगों को जिनकी आँखों में इन गोस्वामी महाराजों की प्रतिष्ठा साक्षात भगवत्स्वरूप तुल्य है; इस आनन्दोत्सव में भी कुछ उसी धेय लीला का सा आनंद आता सा दिखाता है, और सचमुच जहाँ न केवल काशी ही वरञ्च बहुत दूर दूर के अनेक गाने वाली और गुणवती बार बनितानों का समूह सुशोभित है, वहाँ किसी के चित्त में चंचलता का नामोनिशान भी लखाई नहीं पड़ता, हाँ अवश्य कभी कभी लोग विशुद्ध गुण पर रीझते से दिखाई देते हैं। गोस्वामी श्री बालकृष्ण लाल जी महाराज से रसज्ञ और गुणज्ञ गुणी गुण ग्राहक के सन्मुख खड़ा होकर भला कौन ऐसा गुणी है जो अपने गुण का कोई अंश किसी दूसरे गुण ग्राहक को दिखाने को बचा रक्खेगा; क्योंकि उन्हें स्वप्न में उनसे बढ़ कर गुण ग्राहक और प्रसन्न कर देने वाला किसी अन्य अमीर के मिलने की सम्भावना नहीं हो सकती। अतः परस्पर गुणा प्रदर्शन की लाग डाँट और स्पर्धा की दशा की कथा अकथ है। यदि किसी की स्थायी की तान मदनबान हो प्रान को बेधती, किसी के टप्पे की गिरगिरी कलेजे के पुजे पुर्जे करने में छुरी और कटार के काम करती और किसी किसी के नाजो अदा के साथ ठुमरी और गज़ालों का गाना अनेकों के चित्त पर काँटे का चुभाना होता था।

अब तो हमारे पाठकों की पूर्व परिचित उन दोनों बङ्गालिनों की बारी आई, कि जिन्हें हम लोगों ने मुगलसराय के स्टेशन पर देखा था।

वाह! इस समय तो इनका कुछ और ही बनक बन रहा है। बङ्गीय वस्त्रा लङ्कार और सिंगार कुछ विचित्र ही बहार दिखा रहे हैं। इन्हें निहार चुटीले चिच वाले प्रेमियों का अपने को वार फेर कर इन पर बलिहार जाना क्या आश्चर्य है? अब इन लीलावतियों की लीला कैसे लिखने में आये, कि जो