पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/१६

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"कारन ही के कारन गोरन लहत बड़ाई।
कारन ही के कारन गोरन लहि प्रभुताई॥"
अचरज होत तुमहुँ सन गोरे बाजत कारे
ता सो कारे कारे शब्दहुँ पर है बारे॥"

आत्मसम्मान की इस भावना के अन्तर्गत प्रेमघन जी का विस्तृत मातृ- भूमि प्रेम चित्रित है।

प्रेमधन जी उस व्यक्ति को मनुष्य नहीं समझते जिसे अपनी जन्मभूमि प्रिय नहीं हैं:—

"वह मनुष्य कहिबे के योग न कबहुं नीच नर।
जन्म-भूमि निज नेह नाहि जाके उर अन्तर॥"

जिस प्रकार प्रेमघन जी ने अपनी कविता द्वारा जन्म-भूमि की प्रशंसा की है वैसे ही अपने अग्रलेखों तथा निबंधों द्वारा देश प्रेम की भावना को कूट कूट कर अपने काव्य में भर दिया है। प्रेमघन जी ने महारानी विक्टोरिया के राज्य-काल की जो प्रशंसा की है वह चाटुकारिता नहीं थी। कम्पनी के राज्य काल में जो अराजकता और अस्थिरता थी, नबाबी के समय के लूट-पाट के जो चित्र उनके समक्ष उपस्थित थे, उससे तुलना करने पर जब विक्टोरिया के समय में उन्हें सुव्यवस्था दिखाई पड़ी। उसका प्रकाशन तत्कालीन समय की माँग थी। पर लेखक जहाँ प्रशंसा करता है वहाँ उसे. तत्कालीन समय की राज्यनीति तथा कूटनीति का भी ध्यान था, क्योंकि वह कहता है

"अंग्रेज राज सुख साज सबै अति भारी
पै धन विदेस चलि जात यहै दुख भारी॥"

यह थी उनकी व्यापक मनोदृष्टि! इसी प्रकार नेशन कांग्रेस की दुर्दशा शीर्षक लेख में प्रेमधन जी कांग्रेस की फूट पर क्षुब्ध होते है, पर उन्हें अंग्रेजों की कूटनीति की जिससे देश के उन्नति में बाधा पड़ती है उसको भी स्पष्ट शब्दों में कहने में कोई हिचक नहीं दिखाई पड़ती "वास्तव में अंग्रेजी शासन का अभिप्राय निस्वार्थ भाव से केवल भारतोनति है, परन्तु बहुत दिन अाशा लगा कर भी जब देख पड़ा कि वे मनोहर बाते केवल कहने ही भर को थी, कार्य में श्राने वाली नहीं, वरश्च उसके विरुद्ध अब प्रत्यक्ष देश के अर्थ निपट हानिकारक अनेक कार्य होते ही चले