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प्रेमघन सर्वस्व

"बड़े बेवकूफ़ हो तुम्हें इतना भी शऊर नहीं, यों बेगाना भी कहीं हाथ पकड़ घसीटेगा, और इतने लोगों में अवश्य ही मुझे उसका स्वर परिचित बोध होने लगा, तो भी यह कौन है, मैं निश्चय न कर सका।

अब वह मुझे घसीटता और कई नौकाओं पर से डाँकता कूदता जाकर एक सामान्य बड़े बजड़े पर ले गया जिसके बाहर से तो यही निश्चय होता कि इसमें कोई विशेषता नहीं है, परन्तु भीतर से तो वह बस "नूह की किश्ती," ही अनुमान होने लगा, कि जिसमें सबी सुख की सामग्री सञ्चित है, और ऐसे ऐसे दर्शनीय पदार्थ कि जो कहने में नहीं आ सकते। वहाँ पहुँच उसने पूछा कि "कहो वहाँ कुछ मज़ा आया?" मैंने कहा कि कैसा कुछ कि कहने में नहीं आ सकता। "कहा खैर अब आप यहीं मज़े से चैन कीजिये, मैं जरा फिर वहीं जाता हूँ, और अभी चला पाता हूँ। मैंने कहा कि ढहर नहीं सकता, कृपा कर यह बतला दीजिये कि यह कैसा अनुष्ठान है, आप कब कहाँ से कहाँ आ पहुँचे, और अब तक क्या करते थे? उसने कहा हज्जत! यह फिसानये राजा यब या आजाद के सुनाने का वक्त नहीं, इसके लिये बहुत फुरसत दरकार है, अब मुझे जाने दीजिये और आप कहीं न जाइये, यहाँ क्या कम लुत्फ है" अजी यह तो कहो कि यह किसकी किश्ती और किसका सब सामान है।

यह सब अपना ही कारखाना समझिये मैं अभी आता हूँ, तो और बातें करता हूँ। आप सशरीफ़ रक्खें। जी नहीं दो दिन का जगा हूँ अब जाकर सोऊंगा। आप कहाँ ठहरे हैं, और फिर कहाँ पर मिलियेगा" मैं वहाँ से उड़ कर यही सब सामान करता रहा,और तब से मय कुल सामानि सफ़र यहीहूँ दो पहर को तो कहीं और जगह जा रहता हूँ नहीं तो इसी उड़न खटोलने को इधर से उधर उड़ाता, जिधर जी चाहता है घूमता हूँ, मगर जब तक गुलाबी कच्छे पर तमाशा होता रहता है, वहीं किसी कोने में छुपा मैं भी खुदा की शान का तमाशा देखा करता हूँ। आप भी यहीं आराम फरमाइये,और सब सामान भी यहाँ मौजूद ही है, क्यों कहीं जाइयेगा, और श्राइयेगा। जी नहीं, मुझमें इतना साहस नहीं। "खैर अगर आप का जी नहीं लगता, वो बदकिस्मती के मारे चूमिये, मैं तो यहाँ से कहीं जाता नहीं अपना ठिकाना भी तुम्हें बसला दिया,अगर मिलना हो तो चुप चाप अकेले यहीं मिल लीजियेगा; मगर खबदार इस राज को और पर हरगिज़' हरगिज़ ज़ाहिर न कीजियेगा।" ् अस्तु मैं किसी प्रकार उससे अपने को भी छुड़ा फिर अपने पुराने ठिकाने आ पहुँचा।