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दिल्ली दरबार में मित्र मण्डली के यार

कर दिल्ली को हिमालय की नानी बला कर छोड़ देते, जिसे देखते ही अपने तो चलने की चर्चा भी छोड़ देते। कोई मर्द गुबार के बदण्डर उड़ाते कि पढ़ना भी असह्य हो जाता, जाने का क्यों जी चाहता। कोई सब के गुरूघंटात प्लेग देव की पहुँच बतलाकर बी बचाई इच्छा को भी निर्मल कर देता। यदि कोई मित्र आ मिलता तो वह भी प्राय इन्हीं बातों को दुहराता, और साथही वहाँ की भविष्यत् आनन्द की अख्यायिका सुनाता। सबसे "सचहे" कहता, चलने को ललचाता, और 'प्रायः सब आपत्तियों का निराकरण कर सौ सौ सौगन्धै दिलाता "उठो उठो बस चलो-चलो" ही चिलाता। अनेक सामान्य मित्रा के अतिरिक्त कई विशेष सहद और सम्मान नित कमाकरों का आग्रह और भी अपूर्व था। यदि कोई स्थानिक मित्र[१] कहता, कि "मैंने दिल्ली में ठहरने के लिये बहुत ही अच्छे मौके पर मकान मान लिया है, और वहाँ आराम का सब सामान जमा कर लिया है तो दूसरे कहते कि-"मैं अपना बड़ा खीमा और उसके साथ के सब सफरी सामान मेज चुका, गाडी, जोही, और सबार सब वहाँ पहुँच गये। आपको जाड़े से बचने के लिये कई अगेठियाँ भी भेजी गई है। वरञ्च कोयला और प्रायः सभी आवश्यक वस्तु, यहाँ तक कि साधी मनुष्यों के लिये सीधा, और पशो के लिए दाना-घास तक रेलही पर भेज दिया है। अब कहिये क्या आपति है मम रखिये कि मैं श्रापको बिना लिये कदापि न जाऊँगा,बापने चलने का वादा करके मुझे चलने पर तैयार किया है। बाहरी चिछियों की भी कमीनही थी, जो भॉति मोति के सुबीता को जताती बुलाती थीं। विशेषत. हमारी अन्तस्त-मित्र मण्डली के अभिन्न हदय सुहृदों का अाग्रह तो अत्यन्त ही अधिक था। परन्तु मैं कब किसी पर ध्यान देता कि जब महीनो से श्राशा छोई बैठा था। यहाँ तक कि उनमें से अधिकाश लोग दिल्ली भी पहुँच गये, और वहाँ से भी चिहियों की भरमार और तार के तार बॉध दिये। कई कुटम्ब के भी वहाँ जा पहुँचे छोटे[२] भाई ने भी पढेच कर लिखा, कि 'आवश्यक प्राय सभी, सामग्री के सहित हमलोग सहुगल यहाँ श्रा पहुंचे। श्रीमान् महाराज अयोध्या के कैम्प में अलग एक खग्में में ठहरे हैं, अर्थात् एक बाग में जी एकान्त और सुबीते का है और जहाँ किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं है और 'यहाँ की तैयारियों तो देखने ही से सम्बन्ध रखती हैं कहने में नही आती।


  1. महन्थ श्री आनन्द गिरि जी महाराज, मिरजापूर।
  2. पण्डित मथुरा प्रसाद चौधरी।