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दिल्ली दरबार में मित्र मण्डली के यार

कर वह तो उधर चला और मैं अपने बैठने की चिन्ता में पूर्वोक्त बात करने वाले इष्ट मित्रों के संग, जो बिना कहे हो सुने आप से आप मेरे लिये स्थान खोज हारे थे पर कहीं पाँव रखने की ठौर न देख व्याकुल हो बिषाद प्रगट करते थे। मैं भी इधर उधर घूम कर देखने लगा तो हताश हो चला! क्योंकि सेकेण्ड बल्कि फर्स्ट क्लास में भी कहीं पैर रखने की जगह न श्री, तय इन्टर की कथा कौन कही जाय। मेरे सहचरों में से एक ने सेकेण्ड क्लास की एक किवाड़ी खोली तो उसपर चढ़े। एक बनारसी मित्र ने कहा कि "आपके लिये स्वागत तो अवश्य है, परन्तु स्थान सिवा मेरे सिर के और नहीं है, देखिये स्टील ट्रन्क पर भी बैठा अँगड़ाइयाँ लेने को तरस रहा हूँ कृपा कर इन्टर वा थर्ड ही क्लास में कोई खाली जगह मिले तो मुझे भी ले चलिये!" दूसरे कलकत्ते वासी सुहृद बोले कि "आप मेरे स्थान पर आइये मैं इस गठरी पर बैठूँगा, पर आपको अलग न जाने दूंगा। यहाँ से दिल्ली तक की दुःखद यात्रा आपके सत्संग से सरस बनाऊँगा।" मैं उन्हें धन्यवाद देकर चला तो सहचरों ने मुझे फर्स्ट क्लास की ओर घसीटा, देखा कि वहाँ इससे भी अधिक उपद्रव उपस्थित है, गोरे और कालों में घोर विवाद प्रारम्भ है।

मुड़कर देखा तो इन्टर क्लास भी खचाखच भर रहा है। मैंने निश्चय किया कि इस दुर्दशा से तृतीय डी श्रेणी की गाड़ी में यदि अवकाश हो तो चंद लेना उत्तम होगा। सेवक और असबार भी साथ रहेगा। मेरे मित्र मुझे रोक रोक कर कहते, कि "अब कहाँ पागे व्यर्थ बढ़े जाते हो?" मैंने कहा कि "टुक देख लूँ कि मेरे असबाब और आदमियों की क्या दशा है।" यों देखता भालसा जो कुछ आगे बढ़ा, तो देखता क्या हूँ कि हमारी उसी मित्र-मण्डली के प्रियमित्र श्रीमान् भयङ्कर भट्टाचार्य जी महाराज पटने से पलटे इसी गाड़ी में विराजमान हैं। कई मुसाफिरों को धक्का दे दे कर निकाल बाहर करके और कइयों के सिर पर मेरे असबाब के गट्टर लाद और. मेरे मनुष्यों को उसी में स, उन्हीं के ऊपर सब स्टील ट्रन्क रख खिड़की बन्द कर आप उतर अपने उतारे मनुष्यों को दूसरे, दूसरे कमरों में ढकेल ढकेल कर लादं रहे हैं! मैं यह देखते ही चुप चाप पीछे लौट पड़ा। डरा, कि कहीं देख न लें। नहीं तो पिण्ड न छोड़ेंगे और यहाँ से दिल्ली तक न जाने कौन कौन बखेड़े न कर गुजरेंगे। लौटते हुए देखा कि और..कई स्थान पर ऐसी ही लीला और लड़ाइयाँ हो रही है, थर्ड क्लास की भी कोई गाड़ी