पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(७)

जीते और सामान्यतः प्रजामत के विरोध से कोई फल नहीं होता, तब उसके प्रतीकार, या देशोद्धार का अर्थ इस नेशनल कांग्रेस की सृष्टि की जो स्वदेश दुर्दशा देख कर असन्तुष्ट देश के शिक्षित समुदाय की महासभा थी जिसके द्वारा बीस वर्ष चिल्ला कर साम्राज्य से न तो कुछ सच्चा फल और न प्रतिष्ठा ही पाकर, हताश अनेक बाधाओं को झेलता अपनी जान पर खेलता देश में यह नवीन दल जो दिन दूनी और रात चौगुनी उन्नति करता ही चला जाता जिसमें तीन ही वर्ष में देश की दशा ही पलट दी, उत्पन्न हुआ।"

जिस प्रकार कांग्रेस के उद्भव से लेखक प्रसन्न होता है उसी प्रकार वह तत्कालीन नर्म और गर्म दल के फूट के कारण कांग्रेस की फूट पर दुभित हो कह पड़ता है कि "निदान कांग्रेस टूट गई उसके लिखते लेखनी कम्पित होती है। सुनने के अर्थ श्रवण सन्नद्ध नहीं होते। सुनकर वरञ्च वास्तव में टूट जाने पर भी जिससे चित्त विश्वास करने पर तत्पर नहीं होता, किन्तु हाय भारत के भाग्य! दीन सन्तानों ने इस परम अनिष्ट कृत्य को करी डाला जिस कारण समस्त भारत लज्जित और शोक मूर्छित हुआ है" इस प्रकार प्रेमघनजी को भारतीय भावनाओं में उत्तरोत्तर चमत्कार दिखाई पड़ा, पर इतना मानना पड़ेगा कि प्रेमघन जी भारतीय स्वदेश जागरण के उन जागरूकों में से एक हैं जिन्होंने अपने देश के समक्ष जिस गान को गाया उसका प्रभाव तत्कालीन जन समुदाय पर ही न पड़ा, वरञ्च उस समय के क्रान्तिकारी वर्ग पर भी पड़ा और यह स्पष्ट हो गया कि अंगरेजों के चकमें में पड़े हमको भारतीय स्वतंत्रता के लिए स्वयम् खड़ा होकर अपने उन दुर्व्यसनों और दुर्व्यवस्थाओं को ठीक करना है जिनके कारण स्वतंत्रता भारत से भागती है।

चेतना के इस युग में प्रेमघन जी की दृष्टि समाज और धर्म पर भी पड़ी और प्रेमघन जी ने अपने गद्य तथा पद्य काव्य को इन भावनाओं से प्रभावित कर तत्कालीन समाज तथा धर्म की समुचित व्यवस्था का चित्र ही बना डाला। प्रेमघन जी के काव्य पर तत्कालीन स्वामी दयानन्द सरस्वती के साहचर्य का प्रभाव विशेष रूप से पड़ा, "विधवा विपत्य वर्षा" इसका एक अपूर्व उदाहरण है। जिस प्रकार विधवा विपत्ति वर्षा में प्रेमघन जी विधवा की दशा का वास्तविक चित्र चित्रित करते हैं उसी प्रकार हिन्दू धर्म के प्राइम्बरों, अनाचारों, तथा कुविचारों की भी बड़ी कट्टू आलोचना करते हैं! प्रेमघन जी के पद्य के अन्तर्गत आर्य समाज के समालोचनात्मक आलोचना खंड