पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/१७१

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दिल्ली दरबार में मित्र मण्डली के यार

स्टेशन पर आ पहुँचा। वहाँ भी कुछ भीड़ थी। भगवती विन्ध्येश्वरी[१] को मैंने अभिवादन किया कि इञ्जन ने सीटी दी और गाड़ी ऐसे वेग से भग चली मानो निकटवर्ती कालीखोह[२] निवासिनी महाकाली के भय से महिषासुर चिल्लाता और चिंघ्घाड़ता रामगया तीर्थस्थ भगवान पशुपति रामेश्वर की दुहाई देता अपने पापी प्राण बचाने के लिये विन्ध्यगिरि उपत्यका के सवन आम्र कानन में छिपता, छिपाता किसी नितांत दुर्गम तरलताकीर्ण गिरि गुफा में लुकने के लिये जी छोड़ कर भगा जा रहा है। रामेश्वर, शिव और कालीदेवी को प्रणाम करते ही देखा कि पर्वत शिखरस्थ लाला जंगीलाल का सुविशाल बंगला उनकी अचल कीर्ति का प्रमाण भूत दर्शकों को ललचाता मानो अपनी ओर बुलाता है। अहा! क्या ही रम्य स्थल है। आगे भगवती अष्टभुजा का मन्दिर दृष्टिगोचर हो रहा है! प्रणमामि पुनः पुनः कैसा पवित्र स्थान है! यह सीताकुन्ड का निर्मल निर्भर है। कैसी मनोहर संस्थली है। मह रामकुण्ड है। वह कगायिती नदी है। अकोढ़ी और विरोही छटा। क्रमशः विन्ध्यगिरि से दूर हटकर अबं गाड़ी छानबे के हरे भरे प्रदेश पर दौड़ चली। यहाँ छानबे हजार बीगहे इस गंगा के कछार में एक वृक्ष नाम लेमे को भी नहीं लखाई पड़ता है। भूमि ऐसी उर्बरा कि जहाँ तक दृष्टि दौड़ाइये केवल श्यामल शस्थ पूरित पृथिवी मानो अाकाश का अनुकरण करना चाहती है। अनुभव ऐसा होता है, कि कश्मीर को छोड़ ऋदाचित ही यह शोमा अन्यत्र कहीं सुलभ हो। श्राज की सन्ध्या भी यहाँ वैसी ही सुहावनी लखाई पड़ रही है। इस प्रकार प्रकृति की मनमोहनी शोमा देखता देखता गैपुरा स्टेशन श्रा पहुँचे और भगवान् भास्कर भी पश्चिम दिशा के पार जा पहुँचे। रजनी ने अपना अधिकार जमाया और अन्धकार की अधिकाई होने से गाड़ी के भीतर ही भीतर दृष्टि दौड़ने का अवसर शेष रहा श। अतः अब केवल कर्णेन्द्रिय ही के सहारे चित्त-विनोद की भी आशा शेष रही, और उसकी कुछ न्यूनता न थी, क्योंकि पाठकों के सुपरिचित उक्त बाबू साहिब की बातों की झड़ी भी उसी गति से लगी चली जा रही थी जैसे कि रेल गाड़ी जा रही थी।


  1. यह विन्ध्याचल देवी का द्योतक है, जिनका स्थान मिर्जापूर के निकट ही है‌।‌
  2. विन्धयागिरि में एक काली जी का प्रसिद्ध स्थान जो तांत्रिकों का एक मुख्य स्थान है।