पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/१७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४०
प्रेमघन सर्वस्व


अब तक तो पूर्वोक्त कारणों से मैं प्रायः पूर्णतः उन्हें नहीं भी सुन सकता था, परन्तु अब तो रात के होने और उस लम्बी यात्रा में बिना किसी अन्य दिल बहलाव के कष्ट से बैठे समय काटते, सभी बेगानों के बीच गनीमत के एक यह एगाने मिले थे बातें जिनकी अच्छी और लच्छेदार; अतः अब मैं आसन मार सम्यक् सावधान होता बन बैठा, और उक्त बाबू साहिब ने अपनी बातों का सोता और भी बेग से बहाना आरम्भ किया। कहाँ तक कहें कि मानों वे साक्षात् व्यास बन गये, और ब्रह्मा की सृष्टि से आज तक का इतिहास सिलसिलेवार सुना चले, और मैं—"टुकर टुकर दीदम दम न कशी दम" का आदर्श बना बैठा रहा। अब उस कथा का परिचय क्या दिया जाय? सिवाय इसके कि बाबू साहिब की योग्यता और बहुदर्शिता बहुत बड़ी प्रशंसा की सापेक्ष है यही कह देना ही काफी समझ लीजिये। निदान उन बातों को मेरे अतिरिक्त बाबू साहिब की आँखों से छिपे वा उनके सिर के ऊपर पलंग के अड्डे पर झूलते, कोटर के तोते (महादेव के बीज मंत्र को शुक के समान सुनने वाले) वे पूर्वोक्त अपरिचित व्यक्ति भी थे। जिन्हें प्रायः मैं हसरत की निगाहों से देखा करता था, क्योंकि इस कम्पार्टमेण्ट में यदि किसी को सुख था तो उन्हीं को, यदि लेटे थे तो अकेले बद्दी, कदाचित वह यह भी चाहते थे कि कोई यदि मुझसे कुछ पूछे तो मैं बोलूँ, और मैं भी यह चाहता था कि यदि शरीर सीधा करने को स्थान है तो वही पलंग, और उसपर जाने के पूर्व पूर्वोक्त महाशय से कुछ कहना सुनना अवश्य है।

निदान उन्हें बाबू साहिब की बातों से कुछ ऐसे मजे की फुरकुरी आई कि वह सोते से उठ बैठे, और फिर आसमान से उतर कर जमीन पर आ धमके। हम लोग दो से तीन हुये, अब जमीन ही बदल गई। बाबू साहिब चुप हुये और यह नये साहिब बोल चले। कहा, कि—"अबतक तो खैर से, गुजरी, अब देखिये इसस्टेशन पर तो भीड़ जियादा नजराई देती है, शायद यहाँ कुछ मुसाफिर इस गाड़ी में भी, और न मरे जाव" मैंने कहा कि "और कहीं तो जगह हई नहीं है, अगर गुञ्जाइश है, तो आपही के पलंग पर है: पस और मुसाफिरी के पास आपको शायद कुछ तकलीफ का बाइस हो। उन्होंने कहा, कि हाँ, "मिर्जापुर से यहाँ तक तो मैं जरूर आराम में सोता अश्या, इसके पहिले तो आपही लोगों की तरह बैठा पाया हूँ। अब कमर भी सीधी हो चली है, अब आप तशरीफ ले चलिये और अगर कोई दुसरा न धुसा तो आराम से लेटिये।"