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दिल्ली दरबार में मित्र मण्डली के यार


मैं इतना सुनते ही उन्हें सलाम कर ऊपर जा पहुँचा और बर्थ के एक ओर अपना अधिकार जमा चला। खासदान सिरहाने धर उस पर ओवरकोट उतार और लपेट कर रख दी, तौलिये से लपेटी दुलाई खोल कर ओढ ली और तौलिये को ओषरकोट पर उढाकर सुखद तकिया बना लेट गया। नैनी पर कोई नया मुसाफिर इस खाने में नहीं पाया और ट्रेन प्रयाग को प्रवान कर चली। उक्त अपरचित व्यक्ति मेरे स्थान पर जा बैठे, बाबू साहिब उनमें गुट पर चीटे से चिमट चले, क्योंकि अपरचित व्यक्ति एक मनोहर मूर्ति और भद्र पुरुष के से अनुमित होते थे। रंग उनका खूब गोरा चिट्टा, शरीर सुन्दर और सुडौल, अवस्था कदाचित बीस बरस से कुछ कम क्योंकि चेहरा दादी और मूछों से साफ था, वेष अर्ध-अगंरेजी वा अलीगढ़ी-मुसलमानी,-काले काश्मीरे की कोट, पैन्ट, ओषरकोट और टी टोपी, हँसमुख और मिलनसार स्वभाव के बहुत होशियार और चलते पुर्जे लोग लखाई पद्धते थे। बाबू साहिब उनसे पूछ चले कि-हे हे आप का दोलात खाना कँहँ "अपरिचित व्यक्ति से और कहने लगे, कि "आप बिना कसर ही लात क्यों खिलाते हैं और इसके पश्चात् अपना परिचय दे चले जिसका सारांश यो समझ लीजिये, कि वे बङ्गाल प्रेसीडेन्सी के एक मुसलमानी महा नगर के निवासी, एक बड़े ही प्रतिष्ठित मुसलमान कुल के लड़के, वा एक नामी नवाब के नाती, नाम भी इतना लम्बा चौडा कि जितना चाहिये। दर देखने के अतिरिक्त आप सुहामिडेन-एज्यूकेशनल कान्फरेन्स में निज नगर के प्रतिनिधि होकर जा रहे हैं इत्यादि-इत्यादि कह चले। जिसे सुनसुनकर हमारे बाबू साहिब के तो बस छक्के ही छुट चले, और वह भौंचक से हो विशेष विनम्न भाव से नल्बाब साहित्र कह कह कर बाते कर चले, जिनके अन्तर्गत उन्होंने यह भी प्रश्न किया कि आप का नाना नोकाब कहाँ' क्या यो दरबार में नहीं जायेगा? आप इकेला इस गाड़ी मे केशा उत्तर मिला कि "नाना साहिब कल की डाक गाड़ी मे रवाना हो चुके, मै कुछ खानगी जरूरियात से ठहर गया था, टिकट मैंने भी सेक्रेगड क्लास का लिया था, पर क्या करूँ वहाँ जगह न देख इसी में सवार हो लिया।" इतने ही मे गादी यमुनाब्रिज पर दौडने लगी। मनझनाहट का शब्द सुन मैं त्रिवेणी और माधव भी के अभिवादन मे तत्पर हुआ और गाड़ी प्रयाग पहुंच गई। बहुतेरे लोग इस जगमगाते हुए, प्लेटफार्म पर उतरे और खाने पीने के प्रबन्ध में तत्पर हुए। परन्तु मैं इससे निराश उसी बर्थ पर पड़ा सोच रहा था कि ऐसे भम्भड में