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दिल्ली दरबार में मित्र मण्डली के यार


प्रातःकाल टूण्डले के स्टेशन पर पहुँचे। गाड़ी चबूतरे में लगते ही मुसाफिर यों निकल चले, कि जैसे काबुक खुलते ही कबूतर। कोई काली ओवर कोट और नाहट कैप से ढके मुंह से भकाभक चुरुट का धुआँ उड़ाते "मानो इञ्जिन के बच्चे बने दौड़ते, तो कोई रजाई और दुलाई लादे सिकुड़े सिकुड़ाये अपने ्व््व्श्यक कृत्य से विवश चलते फिरते। कोई ईजारबंद खोलते और बँधना टटोलते, तो कोई आधी धोती ओढे लोटा हाँथ में लिये, लाँग खोलते पाखाने में घुस जाते, और कोई थू-थू करते उसमें से निकल पाते हैं। कोई पानी का बम्बा खोलते और पत्थर पोंछ-पोछ कर लोटा माँजते: झाचार हो हिन्दू आचार विचार गाँते; तो कोई हाथ मुँह धोते और कोई उस बरफ के बाप आब में नहाते थर थर काँपते मानो वेतसा खाये चेत लरखराले पैरों किसी किसी तरह गिरते पड़ते गाड़ी तक पहुँचते, यदि अनेकों की आँखों में अपनी जल शूरता के प्रमाण बने आचार समर को जीतते, जीते जी घायल से आकर अपनी जगह गिरते और अनेक अपने जातीय। बंधुनों से धन्य धन्य साधुवाद सुनते भी कान से नहीं सुनते।

सरदी से मूर्छित अपने साथियों से कई रज़ाई उढ़ा कर दवाये जाते, पर तौ भी दुल्की चलते घोड़े के सवार सहश उछलते मानो शीत. दर से पीड़ित मलखाते, और अनेक अन्य जातियों के यात्रियों को हिंन्द्रजाति की इस स्वाभाविक बेवकूफी पर हँसाते हैं। कोई कानी या कहवा उड़ाते, तो कोई भाग निकलती चाय के प्याले लिये चम्मच चूस रहे हैं। कोई गर्मा गर्म जलेबी और पूरी कचौड़ियों पर हाथ फेरते, तो कोई पेड़े बर्फी उतारते। कोई चने चाबता, तो कोई गोश्त रोटी और कबाब की कचर कुट मचा चला। कोई बिस्कुट या पावरोटी के टोस्ट का टेस्ट लेता, तो कोई मुर्गी के अन्डे चूसता। कोई व्हिसकी श्रील्डटाम और एक्शा नम्बर वन के पेग पर पेग जमायें. रुमाल से मुँह पोंछता रिफरेशमेन्ट रूम से निकला चला आता है।

मैं उनिद्रित हो प्रभात-बन्दना से निवृक्ष हो ज्योंही आँखें खोली, चेष्टित संसार को देख गाड़ी से बाहर निकल कर चार कदम टहल लेना और एक नज़र स्टेशन और यात्रियों के हुजूम पर डाल देनी अति आवश्यक समझा, और उतरा तो देखाकि मेरा एक खिदमतगार एक बड़े गिलास में पानी और तौलिया, लिये चला रहा है। मैंने हाथ बढ़ाया, उसने जो पानी दिया तो उसके असह्य स्पर्श की कौन कथा कहूँ, मालूम हुआ कि मानों हाथ में बिच्छु ने खः मार दी। क्या करता? लाचार आँख धोना ही पड़ा, कुल्ली करनी ही पड़ी!