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प्रेमघन सर्वस्व

दाँत हिल गये! हाँथ बेकाम हो गया! जहाँ जहाँ मुह पर पानी लगा मानो चमड़ा सुन्न हो गया। शरीर में कैंप कपी लग गई। परन्तु हिम्मत कर दम कदम आगे ही बढ़ा। खिदमतगार ने पूंछा, कि "भट्टाचार्यजी महाराज तो यहाँ उतरते हैं, पूछा है कि यदि आप उतरे तो असबाब उतारा जाय।" मैंने कहा, कि इरादा तो था, परन्तु अब नहीं है। इतने ही में देखता हूँ कि हमारे पूर्वोक्त मित्र श्रीमान् भयंकर भट्टाचार्य जी महाराज चातुर्वैद्य अपना असबाब एक कुली के सिरपर लादे और एकाध गठरी बगल में दाबे झुटिया डोर झुलाते चले आते हैं। मैंने पूछा, कि—क्यों उतर पड़े, यहाँ क्या है? उतर मिला "क्या नहीं हैं? भूमि है, आकाश है, कुएं का गरम गरम जल है, स्वच्छ वायु है, हरे हरे वृक्ष हैं, चमकीली धूप है,मनुष्य को जो कुछ आवश्यक है सत्री कुछ तो है, क्या नहीं है आप दिल्ली में पहुँच कर अाज कौन सा अलभ्य लाभ लूट लेंगे। बैठे बैठे गाड़ी में तो सड़ गये, क्या करे। इस रेल राँड़ पर चढ़ सब प्रकार से बेधर्म तो होई गये हैं, अब तुम क्या चाहते हो कि जीते ही कुम्भी पाक नर्क का दुख देखने को स्टेशन के पायखाने में भी जाय, वा मल मूत्र का वेग रोके, खाने पीने से मुह बन्द किये, सन्ध्योपासनादि कृत्य छोड़, ऐसेही माल गाड़ी में गठिये से कसे कसाये चले चले राम राम!" मैंने कहा, कि—एक बार तो किसी प्रकार चढ़ बैठे ऐसा न हो, कि फिर इतना भी जोग न लगे। और मुझे तो विश्वास नहीं होता, कि—इच्छानुसार यहाँ सुख भी मिले। अपरिचित देश, और कोई स्थान विशेष भी तो नहीं। बोले, कि—"दिल्ली में लगे पाग; और दर्बार ससुरे पर पड़े बज्र। जब अपना शरीर वा मनही नहीं प्रसन्न रहा, तो फिर क्या लाट कर्जन को उठा कर यदि कोई मुझी को उस कुसों पर बिठा दे, या एडवर्ड महाराज के स्थानापन्न मेरा ही राज्याभिषेक वहाँ क्यों न हो, तो भी तो मैं इस दुख से कदापि वहाँ न जाऊँ। और यह तो एक लीला है, छोटी छोटी लीलाएँ नित्य देखते रहते हैं, यह कुछ बड़ी होगी। और वहाँ चराही क्या है? चार दिन इधर उधर की टीम दाम देख लीजिये और कही कुछ नहीं। अपने स तो यही. मूर्खता हो गई कि घर से चल पड़े, अब तो विना पचीस पचास विल्टे रहना नहीं? लाभ तो कौड़ी एक का लखाई नहीं पड़ता, हानि की गिनती ही. नहीं। अस्तु इससे अधिक और काया-कष्ट हमारे मान का नहीं है। फिर न हम निज़ाम, न कश्मीर नरेश न गायकवाड़ और न अधिया, कि गद्दी से उतार दिये जाने का इर हो, हमारा कोई क्या कर सकता है! कोई यह भी