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दिल्ली दरबार में मित्र मण्डली के यार

तो नहीं पूछ सकता कि तुम क्यों नहीं आये? आकाश की ओर हाथ जोड़ कर धन्य भगवन्! तुमने फिर भी इस भारत के नाम-मात्री राजाओं से हमें लाख दर्जे अच्छा बनाया। धन्य!! धन्य! नहीं तो आज इतनी भी तो स्वतन्त्रता, निश्चिन्तता, मनस्विता, और उत्साह चित्त में न होता! अस्तु आप उधर जाइये, मैं तो इधर जाता हूँ। सुख से मांग-बूटी छान, स्नान, सन्ध्या, पूजा और भोजनपानोपरान्त, यदि इच्छा हुई तो सन्ध्या वा प्रभातु की गाड़ी में यदि यथेच्छ स्थान मिला, तो कल-परसों तक पहुँच जाऊंगा। नमस्कार! हाँ!! वह तो कहो, कि ठहरोगे कहाँ?" मैंने ठिकाने बतलाये, और वह बढ़े, मैं जाड़े से अकड़ रहा था, चाहा कि चल कर ओवरकोट पहन पाऊँ, आगे बढ़ा तो देखता क्या हूँ, कि उक्त नब्बाबसाहिब अपना असबाब एक कुली से उठवाये चले आ रहे हैं, मैंने पूछा कि "कहाँ जाते हैं! कहा कि "उधर के सेकेण्ड क्लास में जाता हूँ, एक जगह खाली है। देखिये अगर मौका मिला तो आप को भी बुलाता हूँ।" वह तो बढ़े उधर, और मैं चला इधर। बीच में एक और मित्र मिले और दो तीन मिनट तक पिण्ड न छोड़ा, बल्कि साथ साथ गाड़ी तक आये तो देखता हूँ कि सिवा बाबू सहिब के और कोई गाड़ी में नहीं है। वह पहुँचते ही कहने लगे कि "नबाब शाव तो गिया। हम उसको बाहूत रोका, किन्तू वो माना नेई! अहा केशा भाला लोक थी। "मैं जो आकर कोट पहिना और जेबों में हाथ डाला तो मनी बेग न पाया! मनीमन में चौकन्ना हो इधर उधर ढूढ़ने लगा पर वह क्यों मिलता। लोग भाँप गये और पूंछ चले, विशेषतः दो अन्य बंगाली सज्जन 'जो बगल की बर्थ पर थे और शहर से अभी अब आये थे। मैं चुप हो रहा, पर वह बारम्बार कहने लगे कि "बोलो ना? कुछ आप का जेरूर नोकसान हो गिया है, हमको बड़ा शोन्देहो होता है।" अत्यन्त हठपर मैंने कहा, कि—शायद इस कोट की जेब में मैंने मनीबेग रख दिया था, वह नहीं है। कदाचित् कहीं गिर गया होगा, अथवा रखने ही में कुछ असावधानी हो गई हो। बस, इतना कहना था, कि चारों ओर के लोग जुड़ आये और भाँति भाँति के तर्क वितर्क प्रारम्भ कर चले और कुछ ही देर में लोगों ने निश्चय कर लिया कि यह काम उन्हीं नबाब साहिब ही का है कि—"वह बहुत देर तक ढंढ ढाँद करता था।" तो दूसरे ने कहा, कि—"कोट की तह तक खोलते मैंने देखा था। हमारे बाबू साहिब कह चले कि—"हमने उस शाला को बहुत रोका किन्तु ओ कुछ शुना नेई और बड़ा तड़ातड़ी में भागा।" एक ने कहा कि,—