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दिल्ली दरबार में मित्र मण्डली के यार

एक एक गाड़ी उन्होंने झाँकी पर उसकी झाँकी न झलकी। तब कोई तो पुलीस में इत्तिला करने जाता, तो कोई स्टेशनमास्टर से, कोई दिल्ली में टिकट देते उस कपट नवाब के पकड़ने का प्रबन्ध करता, तो कोई टूंडले में उसकी खोज' गिरफ्तार कराने को उद्यत, कोई मेरे खोये टिकट के यत्न में तत्पर तो कोई इसके कारण होने वाली क्षति के बचाने में व्याकुल होता. क्योंकि समझता कि जो खोना था, सो खो चुके; और भी जो क्षति उसके कारण होगी सह्य होगी; परन्तु इस व्यर्थ आन्दोलन का फल कहीं ऐसा तो न हो कि मैं कहीं इन्हीं स्टेशनों का न हो रहूँ और दिल्ली दर्बार-दर्शन के स्थान पर किसी दूसरे ही ज़िले की अदालत की सैर न करनी पड़े, इसी से बड़ीबड़ी विन्तियों से उन्हें रोकता और इन बातों के न सुनने के लिये स्टेशन पर ट्रेन रुकते ही मैं गाड़ी से बाहर निकल भागता। बड़े-बड़े स्टेशनों पर जहाँ गाड़ी देर तक खड़ी होती इतने यात्री भिन्न-भिन्न नगरों के निवासी उतरते कि जिनमें बहुतेरे जान पहिचान और कई मित्र मिल जाते। जिनमें कोई-कोई टहलते हुये मेरी गाड़ी तक भी चले आते। विशेषतः फर्स्ट और सेकेण्ड क्लास के बगल में रहने से उक्त समाचार परस्पर एक दूसरे मित्र के कहते सुनते ऐसा फैल गया कि जो मिलता यही पूछता, उनमें भी किसी को न्यून और किसी को अधिक इसी की चिन्ता हो चली।

विशेषतः स्वनगर निवासी एक प्रतिष्ठित-कुल-सम्भूत नवयुवक जिनसे एक प्रकार का घनिष्ट सम्बन्ध और जो किशोरावस्था ही से मेरे मूँलगे हो रहे थे, अब पछाँह के एक ज़िले में नायब तहसीलदार थे, मेरी गाड़ी में पहुँच इस समाचार को सुनकर अति प्राश्चर्यित और दुखी हुये और इस विषय में कर्तव्य स्थिर करने के अभिप्राय से भिन्न-भिन्न गाड़ियों पर चढ़े मेरे और अपने मित्रों से इस समाचार को इस प्रकार बाँट चले कि जैसे चिट्ठी-रसा लोग चिहियाँ। विशेष कर सबसे यह सम्मति संग्रह करते, कि टिकट के लिये क्या कर्तव्य होगा ् वह प्रति बड़े स्टेशनों पर लौट कर पाते और कुछ आश्वासन दे जाते। मैं घबराता और उन्हें वारण करता, पर वह न मानते। अन्त को अाकर उन्होंने कहा कि टिकट की चिन्ता अब छोड़ दीजिये मैं उसका ठीक लगा चुका हूँ। आपही के कथनानुसार न तो यहाँ से नवा टिकट खरीदना पड़ा और न श्राप को पिनालटी देनी पड़ेगी। हाँ एक मनुष्य का कुछ कृतज्ञ होना अवश्य पड़ेगा। मैंने कहा कि इस तक विशेष चिन्ता नहीं।