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प्रेमघन सर्वस्व


अब हाथरस जङ्कशन आया। धूप भी चमक चली थी और जाड़ा भी कम था, अतः लोग भी अधिक चलते फिरते नज़र आने लगे। मैं भी उतरा, देखता हूँ अति अधिक अपने परिचित व्यक्ति और मित्र घूम रहे हैं। जो इधर कलकत्ते और बनारस के कई बाबू और महाजन, तो उधर इलाहाबाद और कानपुर के कई पण्डित जी, लाला साहिब और मिस्टर। लखनऊ और फैज़ाबादि के कई मुन्शी, मोलवी, अमीर, राजे और तअल्लुकऽ दार। तो उधर जबलपुर के सेठ साहिब लोग किसी से प्रणाम, आशीर्वाद, और नमस्कार, तो किसी से गले मिलौअल, किसी से झुक झुक कर आदाब और तसलीमात, तो किसी से गुडमार्निङ्ग, और हाथ हिलैबल होती। किसी से यदि कुशल प्रश्न, तो किसी से दिल्ली में ठहरने ठहराने की पूँछ पाँछ, और किसी से फिर वही बे बात की बात है जिसका न तो कोई उत्तर और न कोई फल। अस्तु फिर घंटा बजा, लोग अपनी अपनी गाड़ियों पर दौड़ चढ़े और गाड़ी चली। ज्यों ज्यों गाड़ी आगे बढ़ती जाती दिल्ली दूर होती जाती, क्योंकि भीड़ इतनी बढ़ती आती कि गाड़ी में टसकने को भी जगह नहीं रह जाती, और न साथियों की सूरत लखाती। आदमियों के ऊपर असबाब और असबाब पर आदमी, वरञ्च कहीं कहीं आदमी पर भी आदमी। कोई सिकंजे में कसे के समान कोने में बैठा, तो दूसरा लड़के की नाई उसकी गोद में जा बैठा, तीसरा खड़े खड़े उस पर बैठ जाता और चौथा भी खड़ा ठेल ठेल कर ढकेलता! ऐसी ही दशा दूसरी ओर, बरमञ्च सबी पोर दिखाई देती? निदान प्रति कोठड़ियों में ऐसा द्वन्द्व युद्ध होता। सबको अपने प्राण रक्षा की चिन्ता? सबी अपने पास वाले को ढकेल ढकेल साँस लेने का अवकाश ढूंढते, परन्तु कहाँ पाते। तो भी प्रति स्टेशनों पर रेल के कर्मचारी खिड़कियों में माँक माँक कर और मुसाफिरों को भरने की अभिलाषा से अपने साथ लिये दौड़ते और स्थान ढूंढते फिरते थे।. प्रत्येक गाड़ियों में ऐसी चिल्लाहट और घबराहट मची थी, कि कदाचित् बहुतों को दिल्ली पहुंचना असम्भव सा प्रतीत होने लगा। मैंने भी कई बार चाहा कि कहीं बीच में ही उतर जाऊँ और प्राण बचाऊँ, परन्तु अब इसका भी अवसर कहाँ था, जब कि यह भी न मालूम होता कि यह स्टेशन कौन सा है! न झाँकने सुकने का अवकाश, न स्टेशन पर सिवाय मनुष्य के और कुछ लखाई पड़ता? जिस प्रकार यह सवारी गाड़ी मुसाफिरों से कसी थी उससे अधिक अवकाश तो कदाचित मालगाड़ियों में भी रहता होगा,