पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/१८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५१
दिल्ली दरबार में मित्र मण्डली के यार

और इस अँधेरी रात में नाहक तकलीफ़ उठाई। स्टेशन से सटे हुए कमिश्नर साहिब के लश्कर में (जिसे उन्होंने आते समय दिखाया था,) न ठहर गये। अस्तु अब चलिये और यहीं मेरे डेरे में डेरा कीजिये।" मैंने कहा, कि—मेरा अभिप्राय यह था कि यदि वह मिल गये होते तो देखते कि वहाँ ठहरने से कितना सुख प्राप्त होना सम्भव है। यदि यथेष्ट समझते तो इसी समय निश्चित रूप से डेरा डाल देते और फिर उससे उत्तम यदि दूसरा मिलता तब फिर टसकते, किन्तु अब तो निश्चय दिल्ली ही में ठहरने की ठहरी इसी से स्टेशन छोड़कर इधर आना इष्ट नहीं है। इतने ही में हम लोग उक्त कमिश्नर के लश्कर के पास पहुँचे, शरिस्तेदार साहिब भी मिले और नायब तहसीलदार साहिब ने उनसे मेरा परिचय कराया। वह बड़े ही तपाक से मिले और परम सज्जन और सुहृद निकले। अति आग्रह से कहने लगे, कि "बहुतेरे डेरे खाली हैं, आप इन्में से एक लीजिए और चैन से रहिये, किसी प्रकार का कष्ट न होने पायेगा। साहिब भी दस रोज़ तक यहाँ न आयोगे, हमी लोगों का स्वतंत्र राज्य रहेगा। मैं अपने रसोइये से आपके लिए भोजन बनाने को कहे देता हूँ।" और जमादार से अलबाब उठा लाने के लिये कहने लगे! परन्तु नुझे वह स्थान स्टेशन की उस सुखद संस्थली से अच्छा न जचा, न दिल्ली छोड़ वहाँ रहना, न एक रात के लिये उनका इतना भारी इहसान उठाना ही उचित बोध हुआ। अतः यद्यपि वह रुष्ट भी हो गये तथापि उन्हें अनेक धन्यवाद देकर और किसी किसी प्रकार उनसे छुटकारा पाकर मैं चलता हुआ।

अब जो स्टेशन पर पहुँचा, तो देखता हूँ कि मेरे नौकरों ने बरामदे में सब असबाब बहुत कायदे से लगा दिया है। स्टेशन मास्टर और चपरासी आदि से व्यौहार भी बढ़ा लिया और उनसे पूँछ पाँछ कर आवश्यक सुख साधन का सब उपाय भी कर रक्खा है। इतना चल फिर आने से बैठने की थकावट बहुत कम हो चली थी। मैं पहुँचते ही अब आगे का प्रबन्ध कर चला। एक मनुष्य को कुलियों के साथ बाज़ार भेज कर-बहुत-सी लकड़ी, उपली, घड़ा आदि तथा सीधा सामग्री लाने को भेजा, दूसरे से ताजा पानी लाने, और से बिस्तर बिछाने को कह, कपड़े उतार चला और पानी पाने पर आवश्यक नित्य कृत्य में प्रवृत्त हुआ। इन्धन शीघ्र और यथेष्ट आ गया था, स्टेशन मास्टर यह कह कर अनुगृहीत कर चुके, कि "चबूतरे के नीचे, जहाँ चाहिये भोजन बनाइये और आग जलाइये" निदान कई अहरे और