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प्रेमघन सर्वस्व

"चिनिस्वत खाकरावर आलमे पाक। इसके बाद वह बहादुरशाह पारिसे अपना और जैसा कि ग्राम लोगों से उनका निल्यका बर्ताव होता था, वयान कर चले—

इतने ही में हम लोग यमुना जी के तट पर पहुँचे, मैं वन्दन अभिवादन करके जो निवृत हुया तो पुल पर चलते चलते बूढ़े मियाँ जी सन् सत्तावन के ग़दर का हाल ऐना बतला चले कि आँखों के आगे तस्वीर सी खींच दी आँसू भरी आँखों से रोते किला दिखला दिखला कर अपनी आँखों देखें ब्रतांत वर्णन करके सचम् च मेरे चित्त में भी करुणा का उद्रेक कर चले और पैर पैर सर का व्यारवार हाल कह चले। निदान इन गाइड के बाबा जान के साथ साथ हम दिल्ली पहुँचे। शहर की सड़क पर कुछ ही दूर चले थे कि एक बड़ी सरा जो दिल्ली के रेलवे स्टेशन के पास ही थी देख कर बड़े मिय हाथों से अपनी कमर टेक कर खड़े हो गये और फर्मान लगे कि मैं तो अब हाँ कुछ खाने पीने की फ़िक्र करूँगा, श्राप कुछ दूर सीधे चल कर दायें तरफ से चल बाये मुड़ और बाये' से फिर दायें चल कर इस मोड़ से उस मोड़ और उस मोड़ से उस मोडं और फिर उस मोड़ से उस मोड़ पर आपको एक बड़ी अज़ीमुश्शान सुर्ख पत्थर की बनी हुई मस्जिद जिसके मीनारं श्रासमान से बातें करते होगे, यानी जामा मसजिद मिलेगी जिसके आगे बढ़कर बायें बाजू को मुड़कर और फिर कुछ दूर दाये चलकर चितली कन और फिर भोजला पहाड़ी पहुँच जाइयेगा। बस फिर मुकामें मकसूद ढूंढ़ लीजियेगा। मैं उनसे सलाम कर आगे बढ़ा और सोचने लगा कि इस मोड़ से उस मोड़ और उस मोड़ से उस मोड़ दायें से बायें और बायें से दाये बाजू का पता लगना तो मुशकिल ही है। लोगों से पूछते भी चलना चाहिए। क्योकि चाहते यह थे कि कहीं घोड़ा गाड़ी मिल जाय तो वही ठिकाने से पहुँचा दे, परन्तु न कहीं खाली गाड़ी और न कहीं एका हाँगा मिलता, वरञ्च मनुष्यों से भरी सवारी की भरमार से रास्ता चलना भी मुशकिल था, विशेष कर जहाँ फुटपाथ न थे, वा मोड़ पर मुड़ना पड़ता था। तिसपर यह भी शोर था कि दिल्ली में आजकल संसार भर के चाँईआ इकट्ठहुये हैं, जो पलक मारते ही बड़ी बड़ी चीजे से चम्पत हो जाते. अतः असबाब वाली गाड़ी के पीछे ही पीछे चलना उचित बोध होता सा और फिर सवारी निकलने की तैयारियों के कारण किसी किसी सड़क पर बैलगाड़ी जाने हो न पाती थी, इसी से बड़े मियाँ को बतलाई राह गड़बड़ा