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प्रेमघन सर्वस्व


मैंने कहा—देखिये यह "इम्पीरियल-केडेट कोर" नाम्नी हमारे राजकुमारों की सेना है! वाह वा वाह! क्या सजधज और श्री दरसती है कि जो सब पर उत्कर्ष ले जाती है। मला क्या यह वीरों में किसी से कुछ न्यून हैं?

शास्त्री—केवल प्रारब्ध।

राजा—और भी, आत्म संयम, आत्म गौरव, स्वकर्मतत्परता, सामयिक नीतिनिपुणतादि अनेक सद्गुण।

शास्त्री—हाँ, किन्तु यह सब उसी के आधार पर स्थित रहते हैं।

भयं॰ भट्टा॰.—मई मुझे तो ऐसा भय लगता है कि इस मसज़िद का शिखर कहीं इन्हीं सब पर न टूट पड़े! क्योंकि वह मेरे देखने में डगमगा भी रहा है।

मैं—देखिये यह हमारे राज प्रतिनिधि भी आये! जय जय! जय!

शास्त्री—कौन? उस करिणी पर भद्र वेश और केश? और इस करिणी पर?

मैं॰—यह सम्राट-सहोदर श्रीमान ड्यूक आफ कनाट महोदय हैं।

शास्त्री॰—हाँ! चिरञ्जीव! चिरञ्जीव! भला इन लाट महाशय के भद्र होने का क्या कोई कारण विशेष है? अथवा स्वदेश पूर्व परिपाटी मात्र?

मैं—मैं तो इसे स्वाभाविक ही जानता हूँ।

भयं॰ भट्टा॰—भाई इस विशाल हस्ती पर यह दुर्बल काय लाट तो नहीं सोहते। इस पर कोई हृष्ट पुष्ट सुन्दर मनुष्य चढ़े तो बहुत अच्छी शोभा देख पड़े।

शास्त्री—हाँ, राज भ्राता पर कुछ राजश्री अवश्य है, वंश गत उत्कर्षता प्रकाशित रहती ही है।

राजा—(भयं॰ से) अजी! इस पर तो सोहते श्राप, किन्तु भाग्य में तो है उनके।

भयं॰ भट्टा॰—अरे वाह, यह अच्छी कही! क्या हम कभी ऐसे हाँथी पर चढ़े ही नहीं है क्या? अभी तो अपने पुत्र के ब्याह में ही इसी रीति से चढे थे, किन्तु इस समय तो कोई लाख रूपया भी दे तो भी न चढ़ें, क्योंकि मुझे डर है कि वह मजित का बाहु टूट न पड़े कि बस वहीं के हो जाय।