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दिल्ली दरबार में मित्र मण्डली के यार


मैं॰—देखिये यह श्रीमान, निजाम बहादुर हैं और वह महाराज माइसोर।

शास्त्री—यह दोनों श्लाध्य हैं, निःसन्देह श्रीमान निजाम एक उदार और न्यायवान राजा है। किन्तु क्या कारण है कि यह राजोचित बत्राभूपण से युक्त नहीं हैं।

राजा—वह यह जानते हैं, कि—हमारे सम्मान का हेतु हमारा पद स्वयम् है, रत्नमय अलङ्कार और चमकीले कपडे नहीं। मानो यह जामामसजिद इन्ही को एकमात्र सर्वश्रेष्ठ शेष यवन शासक देख अपने दोनों भुजात्रो को बढा आलिङ्गन करना चाहती है।

गृही—यह उनकी सादगी है, जो उनकी बडाई दिखाती है। अगरेजों की भी उर्दियों में कुछ न कुछ चमक दमक है परन्तु यह सब से साफ हैं।

भय॰ महा॰—भाई, मेरा सन्देह तो अब दूर हो गया। बस बस ठीक हैं। यह मसजिद इन्ही के लिये हाथ उठाये है और योग्य भी है। अब तो मुसल्मानी बादशाही का जो कुछ अश वा ठाट बाट है, इन्ही मे शेप है। तब इनके अर्थ उसका उत्सुक होना उचित ही है। मानो वह दो दिन आगे ही से ईद की निमाज का निमत्रण देती कहती है, कि—"बहुत दिनों से बादशाहों की निमाज के लिये मैं तरसती हूँ, भला तुम्ही आलो कि मै कुछ तो सन्तोष लाभ करूँ। किन्तु वह बिचारे बरार देश को खो कर ऐसे उदासीन हैं कि एक अलकार तक नही पहने और न उत्तमोत्तम वस्त्र। इस भेद को तनिक सोचिये।

शास्त्री—महिशूर पति भी होनहार प्रतीत होते हैं। निज पिता तुल्य हो यह भी अपनी प्रजा का हित साधन करे ईश्वर से यही प्रार्थना है।

मैं—देखिये यह त्रावकोर के महाराज, और काशमीराधिपति। यह जयपुरेश और वह सेधिया बहादुर।

शास्त्री—हाँ, परन्तु मुझे केवल हिन्दू पति बादशाह महाराणा उदयपुर का दर्शन अभीष्ट था, सो क्या वह नहीं पधारे?

मैं—वह तो नहीं हैं, और उनके पधारने की तो आशा भी न थी। शास्त्री-अस्तु, यदि आये, तो दर्शन होई जाँयगे।

मैं—देखिये यह ओरछा के महाराज पर जठरावस्था में भी क्या वीरता और राजश्री झलकती है।