पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/१९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६७
दिल्ली दरबार में मित्र मण्डली के यार

बिना दूल्हे की बारात जो है। वास्तविक राजा तो ठहरे सात समुन्दर के पार, यहाँ तो हमारे लाट अपनी कुण्डली की विधि मिला रहे हैं।

राजा—हाँ,यह नहीं प्रतीत होता कि शादी की बारात है। बाजों की कमी सचमुच ही उत्सव को फीका किये हुये है। यद्यपि यह भी उसी पश्चिमीय सभ्यता की सादगी की बानगी है, किन्तु पूर्वीय शोभा को जिसकी उत्कण्ठा का यह आडम्बर है, नीरस लखाती है।

शास्त्री—हाँ, स्वयम् सम्राट का ऐसे अलभ्य अवसर पर न उपस्थित होना एवम् उनके सहोदर भ्राता के भाव में भी लाट का प्राधान्य विलक्षण विडम्बना है।

राजा—यह उस सभ्य देश की प्रजा की कुटिल नीति है। निदान सवारी निकल जाने के पीछे भी ऐसी ही ऐसी बहुतेरी बातें होती रही कि इतने ही में हमारे नवाब साहिब भी वहाँ या पहुँचे और वार्तालाप का आनन्द और भी अधिक बढ़ा कि जिनका आख्यान यद्यपि प्रिय पाठकों को अति रोचक होगा, किन्तु संकोच ही उचित अनुमित होता है, क्योंकि विस्तार स्वयम् इष्ट नहीं, विशेषतः विषय विशेष प्राचीन होने से। इसी से अब अति सूक्ष्मतया हम कई बातों की कुछ कुछ सूचना दे इसे समाप्त करना चाहते हैं। अस्तु, तीन बजे, कि शास्त्री जी उठ खड़े हुये और कहा, कि अब विलम्ब करने से सायम्। सन्ध्या लुप्त हो जायगी। सब लोग उठे, राजा साहिब अपनी मोटरकार पर शास्त्री जी को ले चलते हुये और हम लोग नवाब साहिब के संग हुये!!

नवाब साहिब ने हमें और श्रीमान् भयांकर भट्टाचार्य जी को अपने ही साथ बिठलाया, उनके और अनेक पारिषद् तथा भिन्न अन्य गाड़ियों पर बैठे, इसी से चलने के साथ ही विविध प्रकार की बातें छिड़ चली; जिससे न केवल आगत मित्रों के रहने सहने और उनके विचार, बिहार, व्यापार और अन्य अन्य अनुष्ठित कार्यों का विवरण हमें ज्ञात हुआ, वरञ्च दिल्ली की सामयिक अनेक बातों का भी पता चला। इस प्रकार की बातों के ककोरों में अनेक सड़कों की धूल उड़ाते, वाह्य प्रान्त के सायम्-समीर का सेवन करते हम लोग अपने-अपने निवास स्थल पर आ पहुँचे और सुख से रात्रि व्यतीत की।

प्रातःकाल अवश्यक, नित्य कृत्यों से निवृत होकर हम दस बजे दिन को घर से निकल परिभ्रमण में प्रवृत हुए।

यह क्रम प्रायः निरंतर कई सप्ताह तक यों हीं चलता रहा, कि नित्यप्रायः दस बजे घर से निकलना और विशेष अवसरों को छोड़ बहुधा आठ बजे से