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दिल्ली दरबार में मित्र मण्डली के यार


हम लोग अपने कई मित्र मिलकर यह स्थिर कर रहे थे, कि अब क्या करना चाहिये और कहाँ चलना चाहिये कि श्रीमान् भयङ्कर भट्टाचार्य महाशय ने आकर कहा, कि क्या विचार हो रहा है?

नवाब—यही कि, इस वक्त कहाँ चलें और क्या करें?

भयं॰ भट्टा॰—कहाँ चलें? चलो हमारे डेरे पर।

नव्वाव—यापके डेरे पर! कहाँ?

भय भट्टा॰—यही और कहाँ?

नवाब—यही कहाँ?

भय॰ भट्ट॰—अजी इसी—कुकुरिया—मैं हूँ:—कुत्सितिया बाग़ के उधर।

नव्याव—कुदसिया कहो कुदसिया।

भय॰ भट्ट॰—अजी पारसी लवज का उच्चारण यथावत हमसे कैसे हो सकता है। आइये, चलिये, यहाँ क्यों खड़े हो।

नबाब—वहाँ क्या है?

भय॰ भट्ट॰.—वहाँ है—अत्यन्त निकट श्री यमुना जी, शुद्ध जल, झाऊ का जंगल, हरियारी, और हमारे चौबे का अखाड़ा, संसार में विलक्षण उनकी लब चाल ढाल और अनोखी बालों का आनन्द, और सवी कुछ। चलो चलो ऐसी गहरी छनावे कि नवाव साब आप मस्त हो जाय। हमारे हाथ से लो कई बार आपने पीयी है नेक चौवों के पश्चाहती रगड़े का भी तो सुख लूटी।

नव्वाब—आपने तो एक दिन भंग की दावत ही दी है। तबी आपके डेरे पर चलेंगे, ग्राप जितनी पिलायोगे, पियेगे, और जो जो मज़े दिखलायेंगे देखेंगे। आज क्यों?

भय॰ भट्ट॰—अजी भंग की दावत ही क्या? नित्य ही यहाँ तो सैकड़ों की घुटती है। उस दिन यदि अपनी तो आज पञ्चायती ही का आनन्द लीजिये। इस नमय वहाँ अनेक प्रकार का अानन्द ही आनन्द है। सैर इसी बगीच ही से प्रारम्भ कीजिये और प्राइवे। कह-वह सब के आगे आगे हो लिये और घोड़े की भाँति इस मित्रमण्डली रूपी रथ को खींच ले चले।

हम लोग उनके साथ साथ जो यमुना तट पर जा पहुंचे, कि देखा, कि वहाँ चौवों की एक अच्छी सेना पड़ी है,—कहीं सेरों भाँग धुलती, तो कहीं