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शोकोछ्वास

किन्तु प्राचीन ही नाम को दे, दोनों दशायों में श्राकाश और पाताल तुल्य अनन्तर के स्मरण रूप शोक सम्पन्न हृदय कार मुक्तको संसार में मुंह दिखाने पर बाध्य किया। अतः मैं अपने नाम और रूस के भेद को समझ सदैव संकुचित ही रहती भाई! क्योंकि देखती कि एक अंगुल भूमि में भी मेरी उस अड़तालिस कोस बिस्तृत पुरानी सुहागनी शोभा का कहीं लेशमात्र भी शेष नहीं है। बरञ्च उसके स्थान पर स्मशान, रचनों का कबरिस्तान, ऊजष्ट और सुनसान इतस्तता विशृखल और प्रशस्त प्रणाली विहीन कुछ सामान्य देवस्थान भी वर्तमान, तो उनमें केवल दीन प्रजाश्यों को सब प्रकार भयावह प्रसादी रैरागी और बानरों ही का जुट्टान, वर्तमान सामान्य विख्यात नगरियों की साधारण सभ्य जनता और सुख शोभा सामग्री से भी त्रिहीन, सब प्रकार से दीन और मलीन थी। किन्तु हाय! जिस प्रताप के प्रताप से उसमें कुछ अन्तर होने लगा, पिछला दृश्य पलट कर कुछ नवीन सुहावनापन दिखलाई पड़ने लगा कि बस अचाञ्चक शोक ययनिका श्रा गिरी।

वास्तव में उसका ऐसा शोक मनाना और विलाप बूथा नहीं है। अयोध्या के हृदय से स्मशान का दृश्य दूर कर "श्रृंगार हाट"[१] लगा देना श्राज किसी दूसरे से कब सम्भव था! संसार का सबसे आदि महानगर, सूर्य बंशीय महाराजाओं की जगद्विख्यात राजधानी, श्राव्यों के अति पवित्र और परम पूज्य तीर्थ अयोध्या की नितान्त ग्रामीण दशा देखना किसी सहृदय पार्थ सन्तान को कब सह्य था, किन्तु उपाय क्या था? पचासों लक्ष मुद्रा व्ययकर उसके शृंगार करने का साहस किसे था! इसी से मानना पड़ता है कि कदाचित केवल इसी लिए इस प्रताप पुञ्ज प्रताप की सृष्टि हो तो क्या आश्चर्य है।

अवध की राजधानी लखनऊ वरञ्च समीपवर्ती फैज़ाबाद में ही मुसलमानी बादशाही इमारतें देख लौटे पथिकों की आँखों में इस संसार सम्राट की राजधानी जी अबोध्या में भी किसी राजद्वार तथा राजसदन के लखाई पड़ने की भी आवश्यकता थी, फिर न्यूनातिन्यून अयोध्या राजसदन सा भी यदि वह राजसदन न होता, तो क्या होता? अथवा यदि उसके राजद्वार का श्राकार लक्ष्मी द्वार से भी न्यून होता तो क्या होता। नसिंहद्वार पुरन्दर द्वारादि सदश द्वारों से यदि वह हीन ही होता तो क्या होता? मुक्ताभास से सौध यदि उसमें न होते तो क्या होता? यदि उसमें भाँति भाँति के राजोचित सामाग्रियों के अर्थ भिन्न विभाग, यथोचित साज और साधन से सम्पन्न, निजनिर्माता की


  1. अयोध्या नगर का राज्य महल के पास का मोहल्ला है।