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प्रेमघन सर्वस्व

बुद्धि वैभव और सरलता बतलाते न होते, तो क्या होता? वास्तव में सद्यः स्वर्गारोही महाराज अयोध्या, जो कि स्वयं महाराज अयोध्या हुए थे, महाराज अयोध्या पद को समयानुसार पूर्णतः चरितार्थ कर सके थे। उन्होंने अपने शीघ्र नश्वर शरीर छोड़ने के पूर्व न केवल अपना चिरस्थायी शरीर स्वरूप सुन्दर सुविशाल अयोध्या राजसदन मात्र निर्माण किया, वरञ्च अयोध्या की अंगड़ खंगड़ बीहड़ और बेढंगी बस्ती को आज कल के उत्तम से उत्तम महानगरों की श्री में भी सम्पन्न कर दिया। व बीच अयोध्या में राजसदन के सन्मुख शृङ्गार-हाट नामक महाराज से निर्मित नवीन चौक पर पहुँचते ही और लक्ष्मी द्वार पर दृष्टि पड़ते ही कैसे ही सुविचक्षण और सहृदय सज्जन के भी न केवल सुख से, परञ्च हृदय से भी अकस्मात साधुवाद निकलना प्रारम्भ होई जाता और ज्यों ज्यों वह अधिक भागे बढता त्यों त्यों उसकी संख्या निरन्तर अधिक ही होती चली जाती। कुछ दूर जाकर फिर वह मुग्ध हो मौन होता और महाराज से मिलकर तो आनन्द विह्वल हो अपना मन ही वार फेर बैठता क्योंकि उनसे मिलकर किसी श्रेष्ठजन को उससे विशेष सन्मान पाने की कामना शेषन रहती। सामान्य को उससे अधिक सत्कार और यादर संसार में अस म्भव प्रतीत होता; क्योंकि वह अति सामान्य सदगुणागार सरल स्वभाव सत पुरुपरल थे। वह यदि अभिमानी, ईर्षी वा दुर्दण्ड दुराचारियों की दृष्टि में पुरुष व्याघ्र प्रतीत होते तो सामान्य सज्जन सहृदयों के हृदय में नितान्त सरल स्वभाव वरच अति विनम्र और विनीत रूप से निवास करते। जैसा कि रघुवंश में कालिदास कहते हैंः—

"भीमकान्तैर्नूपगुणैः स बभूवोपजीविनाम्।
अधृष्यश्चाभिगम्यश्च यदारत्नैरिवार्णवः॥"

वे भाँति भाँति के गुणवानों के न केवल गुण ग्राहक और आश्रयदाता थे, परञ्च उनके गुणों के अभिमान को अपनी विलक्षण कुशाग्र बुद्धि द्वारा संशोधन शक्ति से दूर करने में भी सर्वथा समर्थ थे। क्योंकि यह प्राज्ञ, विशारद, शास्त्री वा श्राचाय न होकर भी महामहोपाध्याय थे। वह इञ्जिनियर न हो कर भी अभुत शिल्पकार थे। जिसका प्रमाण-स्वरूप अयोध्या राजसदन है। वह बनस्पति-विद्या विशारद न होकर भी उसमें अपूर्व प्रवीणता रखते थे, जिसके प्रमाण ऋतुपति-बिलास, पावस-प्रकाश, मरकत-विभास और मधकर निवास ही हैं। प्रतार घटी यन्त्र, चित्रशाला, चित्रकूट विनोद वापी आदि देख