सजावट भी अनुपम है। यों आगे बढ़ते चन्द्र भवन सौध में पहुंचते ही जिसमें अधिकांश महाराज निवास करते, देख मन मुग्ध होता था। जिसके सन्मुख श्री दर्शनेश्वर जी का सुविशाल शिवालय जो एकमात्र प्राचीन निर्मित इमारत है, देखने वालों की आँखों में राज्य के प्राचीन गौरव को नवीन करता, जिसके चतुर्दिक अति चमत्कृत दृश्य! कहीं चमन, तो कहीं लान, जिसके गोलाकार चतुर्दिक श्वेत शङ्ख, मरकत के मांति भांति के आसन शोभायमान। कहीं फौवारे पानी उछालते तो कहीं कुण्डों में मछलियों पर फेंकती खिले कमल और कुमुदिनी की शोभा बढ़ाती। कहीं पुष्पवाटिका तो कहीं उपवन जिनके बीच बीच मयूर और राजहंस थिरकते और मटकते मन लुभाते। मानों जिसमें सदैव वसन्त बसता, न कहीं देखने को एक सूखा पत्ता या पाखुरी मिलती फिर क्या मजाल कि इतने बड़े विस्तृत वाटिका या समस्त प्रकार के भीतर साक्षात्मकंटपुरी अयोध्या के बीच कहीं एक भी बन्दर तो वहां
कहीं इञ्जन धकधकाता समुद्र कूप से पानी निकालता, तो विद्युत्व्यजन और विद्यत प्रभा का भी प्रबन्ध करता, कहीं छाया चित्र के सुविशाल श्रालड़वाल सम्पन्न सड़यों के शीशों की चकाचौंध, तो कहीं राजराजेश्वर वन्त्रालय की मशीन कागज़ उगलती है। देवालयों के स्थान स्थान में यदि सुरों की तरङ्गै उठतीं, तो कहीं साहित्य सुधा की वर्षा होती। राजसदन के प्रत्येक स्थान पर यदि काशी और प्रयाग की भाँति वाटर पम्प में पानी पा सकते, तो कलकते और बम्बई की माँति रात को वहाँ विद्युत् प्रभा की जगमगाहट भी देख सकते और देखते कि वहाँ सब कार्यो का भुगतान प्रायः टेलीफोन ही के द्वारा होता, फिर राजे महराजों के यहाँ की तो क्या, किसी साधारण अमीर के यहाँ भी जाकर आप को उनके अनुचर और मृत्यों से प्रायः असन्तोष का कारण होगा, परन्तु यह विशेषता केवल उन्हीं के प्रबन्ध की थी कि आप जहाँ से फाटक पर पहुँचे, और यथाउचित वरञ्च उससे भी कुछ अधिक स्वागत और सत्कार वहाँ के प्रत्येक मनुष्य के द्वारा आपका होता हुआ दिखाई पड़ेगा।
उनका विजया दशमी का दवार और उसके पश्चात् शरद पूर्णिमा तक का उत्सव जिसने देखा है, वह उनकी शान व शौकत का कायल होगा। श्रावण में जिन्होंने प्रशसित श्रीमान् के शृङ्गार बन में झूलनोत्सब की पाँचों