पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(११)

है। कितना सुन्दर उदाहरण अलंकारिक भाषा का त्रिवेणी तरंग में मिलता है।

"दुर्ग के पूर्व त्रिवेनी अपने गौरवयुक्त झांकी को कोहिरे से आवेष्टित किए हुए है जान पड़ता है कि अकबर का प्रबल प्राचीन दुर्ग विद्रोही जहाजों से जो अपने विशाल पताकों को चढ़ाए हुए है आक्रमित है। बाल पतंर की अरुण किरणों जो भूसी के वृक्षों से विस्फुटित हो कोहिरे में धंसी है विद्रोही सेना प्रयुक्त लक्ष अग्नि वाण सम दुर्ग को लक्ष्य किए, सी जान पड़ रही है। सारी त्रिवेणी मानो तोपों के धूम्र उमन करने से अन्धकारमय हो गई है। दुर्ग के पूर्वीय फाटक से बटराज के पूजनार्थ घुसते याय॑ सन्तानों को देख यही अनुमान होता है कि विद्रोही बल ने दुर्ग को पराजय किया।

जिस प्रकार गद्य का अलंकारिक रूप उपरोक्त उद्धरण से स्पष्ट हो जाता है और लेखक की व्यापकता तथा परिमार्जित भाषा का आभास इससे स्पष्ट हो जाता है उसी प्रकार प्रेमघन जी के ही शब्दों में भाषा कैसी होनी चाहिए, इसका स्पष्टीकरण आज से बहुत दिन हुए या या कहिए कि आनन्द कादम्बिनी के प्रथम प्रादुर्भाव के साथ ही साथ संवत् १८३९ क्रमीय में विज्ञप्ति के रूप में इस प्रकार निकला "और ईश्वर ने चाहा तो क्या आश्चर्य कि.........समस्त संसार को एकमात्र राज राजेश्वरी महारानी संस्कृत देवी को चिरंजीवी बालिका नागरी कुमारी के नवीन बानक और हाव भाव कटाक्ष की चोत्री छरियों से बीबी उर्दू को जो सदैव अपनी छल-तद्रता के कारण सम्मान के अभिमान से नाक भौं चढ़ाया करती हैं, बाँये हाथ से नाक पकड़ दाहिने की मदद से काट कर चिह? सफा चट्ट कर के तब छोडूं और अधिक कहाँ तक कहूँ भगवान ने चाहा तो कर के दिखलाता हूँ।

इस उत्साह के साथ प्रेमघन जी ने हिन्दी काव्य जगत में पदार्परा किया और अपनी लेखनी द्वारा अपने सदउद्देशों की पूर्ति की।

प्रेमघन जी कवि ही नहीं थे वरच वे उच्च कोटि के हिन्दी के गद्य लेखक भी थे उनका साहित्य पद्य में तो बहुमुखी था ही, पर गद्य में भी आपने निबन्ध, आलोचना, नाटक, प्रहसन, लिख कर तत्कालीन परिस्थितिया का अपने निबन्धों तथा नाटकों में बड़ी पद्धता से निर्वाह किया है।

आपके निबन्धों का जब हम वर्गीकरण करते हैं तब वे व्यक्तिगत सामाजिक, धार्मिक,ऐतिहासिक, साहित्यिक तथा आलोचनात्मक निबंध के रूप में मिलते हैं