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शोकोछ्वास

अनुमव और बहुज्ञता का परिमाण न था। साहस और धैर्य का वारापार न था। वरञ्चः—

बिपदि धैर्यमथाभ्युदयेक्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः।
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ प्रकृति सिद्धमिदं हि महात्मनाम्॥

इन सब गुणों के वे साक्षात् आदर्श थे। तौ भी उन्होंने जिस हीन दशा में राज्य प्राप्त किया था, उसमें उसका पुनः पूर्ववत मान और प्रताप का

स्थापन करना केवल इन्हीं का कार्य था। अयोध्या और उसके चारों ओर प्रताप का विशृङ्खल अनेक उद्दण्ड जाति और समूहों पर इस उत्कट अंगरेज़ी राज्य के समय अपना प्रबल प्रताप प्रज्वलित करके उन्हें शासित कर सीधे मार्ग पर चलाने में जिस नीति-निपुणता, साहस और प्रगल्भता का उन्होने परिचय दिया था, वह कदाचित् साम्प्रतिक स्वाधीन नृपत्तियों से भी दुष्कर था।

वह किसी उचित अथवा आवश्यक काय्यों के करने में कभी हतोत्साह नहीं हए और अनेक ऐसे ऐसे टेढ़े कार्य किये थे, कि जिन्हें जो लोग जानते हैं, हमारे कथन को कदापि यत्युक्ति न मानेंगे। वास्तव में इतना बड़ा नीतिनिपुण, साहसी और वाग्मी तो एतद्देशीय नृपतियों में से कदाचित् ही कोई हो। उनके दरबार में सदैव अदि रोआमा और तअल्लुकदाराने अवध की भरमार रहती तो अच्छे अच्छे पण्डित सुविज्ञ चतुर और गुणियों की भी कतार सशोभित रहती। वहाँ न केवल सांसारिक कार्य वा प्रबन्ध, संगीत साहित्यरसानुभव' अथवा अन्य अनेक मन बहलाव ही की चर्चा होती, बरञ्च परोपकार और परमार्थ चिन्तन का भी अवसर आता था। उनमें न केवल कोरा धर्म आग्राह था, वरञ्च दया, दानादि से भी वह युक्त था, 'प्रतापधर्मसेतु' जिसका साक्षी है। अभी विगत ग्रहण के अवसर पर काशी में गजदानादि के अतिरिक्त उन्होंने प्रत्येक प्रशस्त पण्डितों को पचास पचास रुपये के अतिरिक्त दशाले और पीताम्बरादि बाँटे थे, और अंतिम समय में भी उत्तमोत्तम दान किये। सारांश उनकी उदारता तो विश्वविख्यात थी। वरश्च उनमें ढंद कर भी लोग केवल एक बहुव्ययता का ही दोष निकालते थे और कहते थे किः—"वह तनिक अपना घर देख कर नहीं चलते हैं, अंत इसका अच्छा नहीं।" किन्तु संसार ने देख कर स्वीकार कर लिया कि वह अपने सिद्धान्त में कृतकार्य हए और अंत तो जैसा उनका बना कहीं कदाचित् किसी का बना हो।