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शोकोछ्वास

शब्दों में कह अपने पारिषदों से मानों इस महा यात्रा के नौ दिन पूर्व ही सूचना सी देते कह दिया था कि "मैं नवी नवम्बर के नौ बजे श्री वृन्दावन की यात्रा करूँगा। क्योंकि वहाँ श्री यमुना जी में एक नहर निकलवानी है जिससे वह केशी-घाट से हटकर रेत न छोड़े और जिसमें श्री वृन्दावन के यात्री निकट यमुना स्नान के सुख से वञ्चित न हो।" जब सेक्रेटरी ने महाराज से फ़िहरिस्त तैयार करने को पूछा, तब महाराज ने कहा, कि "अब की बार तो हम अकेले यात्रा करेंगे।" शोक है कि इस लाक्षणिक उक्ति को कोई न समझ सका, प्रत्युत इसके शाब्दिक अर्थ ही पर लोग परस्पर साश्चर्य्यवार्ता करते और इस अनुचित यात्रा साहस पर परिताप ही करते रहे। कविराज महाशय की चिकित्सा बराबर होती रही, परन्तु साथ ही महाराज अपने नित्य कृत्य स्नान और सन्ध्योपासानादि भी करते ही रहे। यद्यपि इतनी कड़ी बीमारी और कमजोरी थी, पर आश्चय्यं का विषय है कि महाराज का यह हुक्म एक दिन के लिये भी भंग न हुआ।

निदान नवी नवम्बर का अमांगलिक प्रभात हुआ। महाराज चन्द्र भवन नामक कोठी के दूसरे मंजिल से उतर, स्नान कर भस्म लगा और सन्ध्या वन्दन कर, श्री दर्शनेश्वर नाथ को पुष्पाञ्जलि चढ़ाने के लिये तामदान पर सवार होकर गये और उनसे सदैव के अर्थ विदा होने की आज्ञा माँग, कोठी में वापस आये और पारिषदों को स्वर्ग द्वारघाट पर, जहाँ से कि दशरथादिक अयोध्याधिपों ने स्वर्ग यात्रा की थी, चलने के अर्थ शिविका तैयार करने की आशा दी। यह सुनकर लोग बहुत ही विस्मित हुए और सजल नयन हो सादर निवेदन करने लगे कि श्रीमान् ऐसी आज्ञा न दें और न इतने अधीर हों। परन्तु महाराज का कुटिल भ्रूभंग देख पुनः किसी का साहस न पड़ा कि विलम्ब करें। शिविका प्रस्तुत हुई और महाराज उसपर चढ़कर राजद्वार से निकल साक्षात् स्वर्गद्वार घाट को चले। बीच में श्री देवकाली जी को सबद्धाञ्जलि नमस्कार किया तथा श्री नागेश्वरनाथ[१] की अभिवन्दना की और स्वर्गद्वार घाट पर पहुंचे।

स्वर्गद्वार घाट जाने का भयानक समाचार, तार की ख़बर सा, समस्त अयोध्या और फ़ैजाबाद में बात की बात में फैल गया और जो लोग जहाँ थे, वही से दौड़ पड़े कि यह क्या अनर्थ हुआ चाहता है। स्वर्ग द्वार पहुँचने


  1. अयोध्या जी में शंकर का देवालय