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प्रेमघन सर्वस्व


परन्तु हाँ अब तो वह समय है कि पाँच वर्ष की कन्या का विवाह आज कल के लोक और शास्त्र के अनुसार उत्तम और उचित समझा जाता है। वर भी चार ही पाँच वर्ष के ढूंढे जाते हैं। क्योंकि जिन्हें भगवान ने खाने पीने का ठिकाना दिया है, उनके घर की बड़ी बूढ़ी, और पुराने ढङ्क के बूढ़ेबाबो लोग सदा यही कहा करते हैं, कि "बस अब थोड़े दिन जीना और है; अपनी आँखों से लड़के पोते का विवाह देख लें, फिर कुछ इच्छा नहीं।" यदि कोई भूला चूका भलामानस बोल उठा कि "महाराज अभी तो लड़का शादी योग्य नहीं भया" तुरन्त क्रुद्धित हो कहने लगते हैं कि फिर क्या जब मूँछ दाढ़ी आवै तब दूसरे तीसरे व्याह के समान व्यर्थ का टंटा आपको पसन्द है?" भीतर से माँजी साहिबा फ़माने लगी कि 'अरे! दुलहा भी कहीं मुछाड़िया सोहता है? खासा छोटा मोटा, गोल मठोला, काजल दिलवाये, सहरा लगाये, खिलौना सा, दुलहा के संग उसकी खासी गुड़िया सी बहू सोहती हो, सजता है। तुम तो लालाजी, हो गये हो पागल, ऐसी भी बात कहीं करनी होती है। और बचवा का व्याह तो अबके साल न होगा तो राम जानै मैं तो जहर खाकर मर जाऊँगी। वाह! अच्छी केही तुमने तो, भगवान बहू के हाथों की चार रोटियाँ खिला दे, फिर मरना हुई है। जो गरीब हैं वे पापी दो वर्ष की लड़कियों को भी मिसल लौडियों के बाहे लड़का हो वा बूढ़ा, रोगी हो या कोढ़ी; चोर, डाकू, जुवाड़ी वा दुष्ट हो, या भला, मानस, कुलीन हो या नीच, उपिया ले बाजारी सौदा-सा हवाले कर देते हैं। फिर उनकी कथा कौन कही जाय। चित्त में अनुमान करने ही से जाना जा सकता है। ् रहे वे, जो कि यद्यपि रोटियों से भी दुखी हैं, पर तो भी, कानी कौड़ी को हराम मानते हैं और चित्त से धर्म, परलोक, और ईश्वर का डर मानते हैं, यदि अच्छे कुल में विवाह करने के। हठ करते तो न उन्हें जहेज़ में देने का गटरी की गटरी रूपया पाते न व्याह होता। परन्तु चाहे, जिस तरह का व्याह हो, ख्याल प्रायः दोई बातों का रहता है, एक तो पंडित जी की कुण्डली के विधि मिलने का, अर्थात् चाहे अंधा, काना, कुरड़ा, लूला, लंगड़ा, काला, कुरूप, मूर्ख, दुष्ट, क्या सर्वादोषयुक्त क्यों न हो, कुण्डली की विधि मिलने से लक्ष्मी-समान रूप गुण सम्पन्न कन्या का व्याह करी देवेंगे। जाति और खानदान अच्छा हो, चाहे वह खाने बिन मरता वा कैसा ही फ़ाके मस्त हो, इसपर कुछ ध्यान न देवेंगे। निदान नीच से भी नीच, का संसार भर की दुष्टत' क्यों न करता हो, या विद्या के नाम काला अक्षर भी न