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विधवा विपत्ति वर्षा

'जानता हो, पर तो भी सरस्वती सी पंडिता और बड़े बाप की बेटी उसे व्याह देंगे, परन्तु गणना का बैठ जाना उसमें भी आश्यक है।

ऐसा अवस्था में ऐसी निर्दयता, कठोरता, और अन्याय के साथ जी विवाह प्रायः बाल्यावस्था ही में किया जाता है, यद्यपि उससे जो जो आपत्तियाँ आती हैं वर्णन उनकी सर्वथा असम्भव है; पर तो भी यह तो प्रसिद्ध है कि ऐसे व्याह से आपस की प्राति और मेल कैसे उत्पन्न होने की संभावना। हो सकती है। अन्योन्य प्रकृति का प्रतिकूल होना हर अवस्था में दुःख की विषय है किन्तु इस स्थान पर धर्माधर्म तथा शास्त्रांज्ञान को कुछ भी विचार नहीं करते! क्योंकि अपने पवित्र धर्म शास्त्र में भगवान मनु या आज्ञा देते हैं, किः—

"काममामरणातिष्ठेद्गृहे कन्यर्तुमत्यपि। नचैवैनां प्रयच्छेत्तु गुणहीनाय कर्हिचित्॥ त्रीणिवर्षाण्यु दीक्षेत कुमार्यर्तुंमतीसती। ऊर्द्धन्तु कालादेतस्मादिदेतसदृशपातम्॥ अदीयमानाः भर्तारमधिगच्छेदि स्त्रयम्। नैनः क्रिञ्चिदवाप्नोति नाचवं साधि गच्छति॥" अर्थात ऋतुमती भी कन्या होकर गृह में मरण तक रहे। परन्तु गुणहीन पुरुष को वह कन्या कदापि न दे। तीन वर्ष तक ऋतुंमती कन्या अच्छे वर की आशा करे इसके अनन्तर समान पति को प्राप्त हो। पिता आदि आज्ञा नहीं देते, और कन्या आप से भर्ता को स्वीकार करे तो उस कन्यावा उस वर को कुछ दोष नहीं।"

निदान अब इन गिनतियों को मैं नहीं गिनना चाहती, जिनका अन्त नहीं कि कोई सुन्दरी कुरूप पुरुष को; विद्या विनय शील सौजन्यादि गुण हीन दुष्ट, पामर, नीच, निर्लज्ज, मूर्ख का; बड़े बरवारी, बारी सुकुमारी, दरिद्र, अल्खड़, फाकेमस्त, जर्जर लस्त को ब्याह दी जाये; अर्थात् ऐसा ही कहीं (काकतालीय न्याय, के समान) कोई, गोटी-ठीक पड़ जाय तो संयोग और प्रारब्ध के नहीं तो प्रकृति-विरुद्ध होना ऐसी अवस्था में अधिकांश सुलभ है। परन्तु धन्य है ये भारत की भामिनियों कि इस दशा पर भी वे अपने धर्म और कुलकानि का त्याग नहीं करती; किंतु बेपीर बधिक से बैरी सदृश बाप से दी गई लड़कियों आँख मूंदे पति के संग बेउज चली जाती और जो कुछ दुख सुख पड़ता खुशी से झेल जाती है। बुरे से भी अरे पति को ईश्वर तुल्य जान उनकी सेवा से अपने जीवन के दिन बिताती; और शालग्राम की छोटी बड़ी सब बटिआयें तुल्य जानती, तथा घी का लड्डू टेढ़ा भी मीठा मानती है।