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विधवा विपत्ति वर्षा

देती, और कोसती कि अरी पापिन! अभागिन, बेहया! तू रोती नहीं, क्या जानता नहीं कि पति तेरा मर गया, और तू बालरण्डा हुई! हाय राम! रे रामा! इत्यादि, वाक्य उस दयायोग्या बालिका को कह कह कर बेजाने दुख का जताता, और सतातीं, जिन्हें वे विचारियों सोचती भी पर नहीं समझ सकती। कोई हाथों की डडही चूरियाये कँच कँच कर चूर करतीं, कोई उनके अमेल ललाट से सिन्दूर को दूर करतीं, कोई काजल और महावर धोती और कोई काई सुथरे रंगीन वस्त्र छीन उसे मैली मिट्टी से रंगी मैली अली धोती पहनाती, और कोई सिर के बालों को खोल कर उनमें धल जाती है, और कहती कि "तू! कोने में मूं छिपाये बैठा रात दिन रोया कर। और अपना में किसी को मत दिखाया कर! काई शुभ कर्म को प्रारम्भ करता हो, का किसी मंगल कार्य को जाता हो उसे यह अपना अमङ्गल वेष भूल कर मन दिखा, तुलसी का पूजन, और ठाकुरजी की सेवा फिया कर और यह माला लेकर राम राम जपा कर न उसे आँगन की हवा लगने पाती, न वह पूरे पेट भर खाना खाने पाती, पाँच पाँच मत रह कर (अर्थात एका दशी से परिवा पर्यन्त) केवल रूखा सूखा अन्न सो भी चौथाई पेट खाने को पाती, इसलिये कि इन्द्रियों प्रबलन हा। पास उसके कोई हमजोखी बालिका भी नही जाने पाती, कि कदाचित् धमकी बात और चाल ढाल इसे भी न आ जाये, या कोई कुसंग का प्रभाव न आ जाये। दिन रात वह उसी एक कोठरी में पड़ी पदी बिलख विलख कर मरती है। कहाँ तक गिनाऊँ कि स्मरण करते ही रोमाञ्च होता, दिल भर पाता और छाती थर्राने लगती, आँखों से आँसुओं की मढी लग जाती है। अब यदि सोचिये कि कौनसा कारण ऐसा हुआ निससे एक मनुष्यजातीय निरापराधिनी अशान बालिका ममग्र जीवन पर्वत को हम घोर दुख से विधवा करके बैठाई गई. सिवाय इसके कि क्षण भर अनिय बन्धन का सयोग या हाथ का स्पर्श, सिन्दर दान के समय मस्तक से हुआ, वा पाणिग्रहण के अतिरिक्त कुछ और नहीं। परन्तु हा यदि इतने ही स्पर्श से विवाह माना जाय तो लडकपन में सैकड़ों ऐसे पुरुष पर्श होते हैं, तो क्या सैकड़ों विवाह मान लेने होंगे।

अब टूक और प्रकार की विधवाओं का चरित्र तथा उनकी आपत्तियों का भी वर्णन जो दाम लेकर लौंडियों की भांति बेची गई, वा गणना और कुरीडली के मिलान में, वा बाप की बेईमानी और नीचपन से कसाई के हवाले क के तुल्य, स्वभाव प्रकृति विमट्ठ' अत्यन्त अनया और अन्याय के मग सुपुर्द