पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/२२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१९५
विधवा विपत्ति वर्षा

लड़के-बाले हैं, और वे प्रायः अशान और असहाय हैं। फिर पति ने उचित अवस्था पर अर्थात् वृद्ध हो प्राण त्याग किया, अपनी भी अवस्था पर यौवन का लेश तक न रहा, किन्तु वृद्धता ने घेरा और इन्द्रियाँ प्रायः शिथिल हई, चित शान्ति और भक्ति तथा ज्ञान से युक्त हुश्रा, तो वै ब्रह्मचर्य पूर्वक ईश्वर के अर्चन और वन्दन करतीं, और अपुष्टान्न अर्थात् शाक फलाहार के भोजन से पेट भर लेती, वस्त्राभूषण से बिलकुल प्रयोजन न रख, उदासीन वृत्ति से उस थोड़े जीवन को काट डालतीं, वा जिनके शरीर पुष्ट है अथवा जिन्हें मरने की शीघ्रता, वा अत्यन्त विरक्त हुई, चान्द्रायण इत्यादि ब्रतों से शरीर को जला कर राख हो गई, उनके लिये भी सती होने से अधिक दृढ़ता-धर्म परायणता चाहिये। मैं कह सकती हूँ कि उनसे ये कदापि कम नहीं, जैसे किसी ने कहा है "उनको सती न जानिये जो पति संग जरि जायें। साँची सती प्रमान जो जरत जरत जरि जायें।

तीसरी वें जो कि प्रायः बाला वा युवती हुई है, अथवा जिनके सन्तान नहीं वा जिनका स्वभाव पूर्वोक्त दोनों प्रकार में से नहीं और चित्त की कादरता से सती होना एवम् दुःख-असहन शीलता से ब्रह्मचर्य भी नहीं कर सकी, अथवा चित्त की इच्छा हुई तो नियोग (अर्थात् केवल एक वा दो पुत्र उत्पन्न कर लिया तथा पुनर्विवाह किया। शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाह लिखे हैं, यथा,

"ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथा सुरः।
गांधावोर्राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः॥

मनु॰ अ॰ ३ श्लो॰ २११


अर्थात् १ ब्राहा (वर को बुलाकर वस्त्र और गहना सहित कन्या दान), २ दैव (यज्ञ में ऋत्विक को दान), ३-ऋषि (एक गऊ का शुल्क लेकर वा यों ही दान), ४-प्रजापत्य (वर और कन्या धर्म करे), ५-आसूर (मोल ली कन्या वा द्रव्य के बदले व्याही)।

६—गाँधर्व (वर और कन्या की परस्पर-इच्छा से संयोग हो)

७—राक्षस (युद्ध करके जीती गई वा मारते काटते हुये पुरुष से हठ पूर्वक हरी गई।

८—पैशाच (सोती, नशे से उन्मत, वा रोग से पीड़ित समय का संयोग) इसी प्रकार १२ तरह के पुत्र कहे गये।