पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/२२९

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विधवा विपत्ति वर्षा

परम विद्वान्, सत्यधर्मधुरन्धर अधर्मतिमिरनाशनैकप्रभाकर पारिडतवर ईश्वर चन्द्र विद्यासागर का बनाया ग्रन्थ जिसका सार भाग लेकर बाबू काशीनाथ जी ने अनुवाद कर आज-कल प्रकाश किया है और जिसके अनुसार संग्रह कर एक ग्रन्थ श्रीयुत नवीनचन्द्र राय ने भी छापा था उसके द्वारा इसके प्रमाण सब पर विदित है, जिसका यह प्रभाव हुआ कि बंगाल इत्यादि देशों में सैकड़ों विधवाओं का पुनर्विवाह हो गया। क्यों न हो जबकि ऐसे महात्मा उक्त पण्डित जी ने जो आज कल के साक्षात वृहस्पति हैं, प्रसिद्ध प्रसिद्ध स्थानों में सभा कर हठी पण्डितों को परास्त करके स्वयम् अपने सब पुत्रों का ब्याह सजातीय बाल-विधवाओं से किया। ईश्वर ने संसार की सृष्टि के प्रबन्धार्थ न केवल मनुष्य, किन्तु पशु, पक्षी तथा नाना जल-जन्तु इत्यादि समस्त जीवों के लिये नर और मादीन दो तुल्य वस्तु का सिरजन किया। यथा मनु—"प्रजनार्थ स्त्रियः सृष्टाः संतानार्थञ्च मानवाः।" अर्थात् "गर्भधारण के लिये स्त्री और गर्भ स्थापन के अर्थ पुरुष उत्पन्न किया। अतएव दोनों बराबर है, और अधिकार भी दोनों का सम है; जैसे फिर मनुका वचन—"यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा।" अर्थात् जैसी अपनी आत्मा है वैसा ही पुत्र और पुत्र के समान कन्या है" किन्तु स्त्रियों की बड़ी प्रतिष्ठा हमारे शास्त्रकारों ने रक्खी है; यथा—"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्तें रमन्ते तत्र देवताः "यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्ततत्राफलाः क्रियाः॥ शोचन्ति जामयोयत्र विन्स्त्याशु तत्कुलम्। न शोचन्तिणयत्रेत वर्धते तद्धि सर्वदा॥ अर्थात् जिस कुल में स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता रमण करते हैं। और जहाँ स्त्रियों की पूजा नहीं होती, वहाँ सब क्रिया निष्फल होती हैं। जिस कुल में स्त्रियाँ शोक करती हैं, वह कुल फट पट नष्ट हो जाता है, और जहाँ वे शोक नहीं करती, वह कुल सदा बढ़ता है। परन्तु यहाँ के आजकल के मनुष्यों ने तो स्त्रियों को कुछ चीज नहीं समझ कर, जो कुछ दुख था, सबका भागी इन्हीं को ठहरा लिया है। पूजा और पत्री कैसी, देखिये जैसे पुरुषों को नौ दशाओं में अधिकार है कि प्रथम स्त्री का त्याग कर दूसरा विवाह करें।

"मद्यपाऽसाधुवृत्ताश्च प्रतिकूलाचयाभवेत्,
व्याधिता' वाधिवेत्तव्या हिंसाऽर्थन्नीच सर्वदा।
वन्ध्याष्टमेधिवेद्याव्दे दशमेतु. मृतप्रजा,
एकादशे स्त्रीजननी सद्यत्वप्रियवादिनी।" (मनु)॥