पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/२३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१९८
प्रेज्ञघन सर्वस्व


अर्थात जो मद्य पीने वाली (१), साधुओं के आचरण से रहित (२), शत्रुता करने वाली (३), सदा रोग से युक्त (४) घात करने वाली (५), निरन्तर अर्थ का नाश करने वाली (६), वन्ध्या (७), जिसके लड़के मर जाते हो (८), वा केवल कन्या उत्पन्न करने वाली हो (९), तो क्रम से आठवें दशवें ग्यारहवें वर्ष में पुरुष दूसरा विवाह करें और अप्रिय बोलने वाली को तुरन्त त्याग दे (१०), इसी भाँति स्त्रियों के लिये भी विविध अवस्थाओं में विविध रीति से प्राशा है यथाः—

"प्रोषिते धर्मकार्येंपि प्रतीक्ष्यष्टौ नरः समः।
'विद्याऽर्थ षष्ट यशर्थे वा कामार्थत्रींस्तु वसरान।"

धर्म-कार्य, विद्या के अर्थ, यश के और काम अर्थ विदेश गये पति की प्रतीक्षा और आशा क्रम से आठ, छः, तीन वर्ष के पर्यन्त स्त्री करै। इसके उपरांत वह दूसरा विवाह कर ले। अब इनके अतिरिक्त और दशाओं में भी जो शास्त्रों की आज्ञा है उन्हें भी देखना उचित है। अब ये श्लोक जो आगे लिखे जाते हैं पाराशर संहिता के हैं। कि जो धर्मशास्त्र केवल कलियुग के वास्ते बनाया गया है—"कलो पाराशरः स्मृतः। अर्थात पाराशर निरूपित धर्म कलियुग का धर्म है"। उसमें भगवान् पाराशर ने "अनेक कलियुगे नृणां युगह्रासा निरूपितः" अर्थात युग के ह्रास अनुसार मनुष्य की शक्ति भी घटती गई, अतएव धर्म भी युग के अनुसार दूसरा ठहराया जाय।

धार्मिक ग्रन्थियों के ढीला होने पर विधवाओं को प्रथम से दूसरे विवाह की आज्ञा दे दी और इस दूसरी विधि को इस प्रकार लिखा है, यथा—

"नष्टे मृते ग्रबजिते क्लीवेचपतिते पतौ।
पञ्चस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयिते॥"

अर्थात् पति के अनिर्दिष्ट हो जाने से (विदेश जाने से पता न मिले) वा मर जाने, संन्यासी होने, नपुंसक, वा पतित हो जाने पर इन पाँच अवस्थाओं में स्त्री को दूसरे पति का विधान है।" ऐसा पाराशर महर्षि का मत है, फिर यही वचन नारद संहिता के द्वादश विवाह-पाद में भी है, यथा—

"नष्टे मृते प्रबजिते क्लीवेच पतिते पतौ।
पञ्च स्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते॥
अष्ट वर्षाण्युपेक्षत ब्राह्मणी प्रोषितंपति म्।
अप्रसूतातुचत्वारि परितौऽन्यं समाश्रयेत्॥"