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विधवा विपत्ति वर्षा


अर्थात पति के अनिर्दिष्ट होने, मरने, नपंसक,संन्यासी वा पतित हो जाने से इन पाँचों आपद् में स्त्रियों को अन्य पति का विधान है। पति विदेश जाने से ब्राह्मणी आठ वर्ष तक अपेक्षा करे, और यदि लड़के न हुए हों तो चार ही वर्ष ठहर कर पीछे दूसरे पति को ग्रहण कर सकती है।" बहुतेरे गोबरगणेश शर्मा लोग कह बैठते हैं कि यह विधि वाग्दत्ता कन्या के लिये है; पर वे यह नहीं समझते कि वाग्दत्ता कन्या के पुत्र कहाँ से होगा। अप्रसूता के लिये चार वर्ष लिखा तो अब वाग्दत्ता से कौन सम्बन्ध रहा। नारद ने मतप्रणीत बृहत संहिता को संक्षेप करके अपनी संहिता रची है, अतएव वह मनुसंहिता का एक अवयव मात्र है।

इससे इस वचन को मनु का भी वचन मानना चाहिये, इसी कारण माधवाचार्य ने पाराशर भाष्य में उस श्लोक 'नष्टेमृते' इत्यादि को मनु का वचन कहा है॥ फिर सब शास्त्रों में प्रधान वेद है; उससे भी स्पष्ट ज्ञात होता है कि विधवा-विवाह शास्त्र सम्मत है, और सदा से होता आया है, क्योंकि तैत्तिरीयारण्यक के षष्ट प्रपाठक के एक अनुवाक के १३ और १४ मन्त्र से प्रगट होता है कि किसी अहितानि के मृत्यु होने से उसकी स्त्री अपने पति के शव के पास बैठती है तब यह मन्त्र पढ़ा जाता है

"इये नारी पति लोकं वृणानानि पद्यत्त उपस्वा मर्त्य प्रेतं।
विश्वे पुराण मनु पालयंती तसौप्रजा द्रविणञ्चहे धेहि॥"

अर्थात् हे मनुष्य! तेरी स्त्री अनादि काल से प्रवृत धर्मों की रक्षा करती हुई, पतिलोक की कांक्षा करके तेरे मृत देह के समीप प्राप्त हुई उस अपनी धर्म पत्नी को इस लोक में निवासार्थ अनुज्ञा देकर सन्तान और धन ग्रहण करने दे।' इसके पीछे पुरोहित उस विधवा स्त्री के पास नाकर बाँये हाथ से पकड़ कर इन मन्त्रों का अर्थ कला के अनुसार करता है। उसे उठाता है, और १४ वाँ मन्त्र पढ़ता है,

"उदीर्ध्व मयिभिह जीव लोक मितासु मेलमुप शेष यहि।
हस्त ग्रामस्य दिधि षोस्त में ततपत्युर्जनित्व मभि संवभूव॥"

अर्थात हे स्त्री! तू उस पति के पास सोई हुई है जिसके प्राण चले गये हैं, उठ जीव लोक में आ, अब उस पति की स्त्री बन जो पूर्व विवाहिता स्त्री के पाणि-ग्रहण करने की इच्छा करता।"