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विधवा विपत्ति वर्षा

मरे भाई की स्त्री को उसके धन के साथ ग्रहण करले वह उसी स्त्री में पुत्र उत्पन्न करके उसका सब धन उसी पुत्र को दे देवै। यथा मनु "धनयो विभृयाद् भ्रातुर्मृतस्य स्त्रियमेवच। सोफ्ल्यं भात्रुत्पाद्य दद्यातस्येव तद्धनम्॥" न यह विधान प्रायः मरने ही पर किन्तु उन सब अवस्थानों में जो क्षेत्रज पुत्र के लक्षण में कही गई है, इसका यहाँ तक विधान किया है किः—

"यद्यथिंतातु दारैः स्वात् क्लीवादीनां कथंचन।
तेषाँमुत्पन्न-तंत् नाम पत्यं दाय मर्हीव॥

अर्थात् नपुंसक भी विवाह कर इच्छा से अपनी स्त्री में पुत्र उत्पन्न करा के अपना हिस्सा दे सकता है। किन्तु इसीलिये क्षेत्रज पुत्र को औरस के समान माना है। अब यदि अनुमान कर देखा जायगा तो पौनर्भव भी उसी के बराबर ही ठहरेगा। यद्यपि सतयुग के लिये मनुजी ने पौनर्भव को दसवाँ पुत्र कहा, परन्तु याज्ञवल्क्य ने उसे छठवाँ और दत्तक को सातवाँ मान कर मनु की तरह पूर्व पुत्रों के अभाव में पर दो को श्राद्ध और धन का अधिकारी माना। पर वशिष्ठ ने पौनर्भवश्चतुर्थः। चौथा माना, एवम् विष्णु ने भी "पौनर्भवश्चतुर्थः। दत्तकश्चाष्टमः चौथा ही और दत्तक को अष्टम कहा; परन्तु कलियुग के धर्मशास्त्र पराशर-स्मृति में न पुन और न पौनर्भव का कहीं नाम है, क्योंकि कलियुग में पुनर्विवाहिता विधवा न पुनर्भू कहाती, न उसका पुत्र पौनर्भू पुकारा जाता है; किन्तु कलि में वह औरस पुत्र कहाता है। अब सब प्रकार से विधवा-पुनर्विवाह शास्त्रों से तो कर्तव्य-कर्म सिद्ध हो चुका और जो कहीं कहीं इसका कुछ साधारण रीति से निषेध पाया जाता है, तो उसी प्रकार से पुरुषों के भी पुनर्विवाह का निषेध किया गया है, जैसे याज्ञवलक्य "अनन्य पूर्विका काताम सपिण्डाय वीयसीम। अर्थात जिसका. पहिले विवाह न हुअ हो ऐसी स्त्री से विवाह करना।" इससे भी विधवा पुनीविवाह होता था, कलकता है, वैसे ही याज्ञवल्क्य (दीपकलिका) तथा उदाहतत्त्रधृत बोधायन का वचन—"श्रुति शीलिने विज्ञाय ब्रह्मचारिणोऽर्थिने देया,, (अर्थात् वेद पढ़ा, ज्ञानवान्, विनाव्याहा, प्रार्थनाकारी पुरुष को कन्या देनी चाहिये) परन्तु पुरुषों के लिये कोई रोकटोक करने वाला नहीं, और हमारे अर्थ कोई कहने वाला भी नहीं, सच है वे प्रबल हैं, और हम अबला अबला!

अब यह भी देखना चाहिये कि विधवा-विवाह आगे होता था या नहीं? तो महाभारत के भीष्म पर्व ९१ अध्याय में लिखा है, कि "अर्ज्जुनस्यात्मज"