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प्रेमघन सर्वस्व

छोड़ कैसे देश की कुदशा की ओर दत्तचित्त हो सकते हैं यह वही समझे जो नवयुवकों को गालियाँ देते नहीं लजाते।

इसमें सन्देह नहीं है कि नवयुवकों की चाल-ढाल और विशेष व्यवहारों में पूर्व भारतवासियों की अपेक्षा बड़ा अन्तर पड़ा जारहा है। उनके धर्म्म और कर्म्म भी सब छूटे जारहे है। उनके विचार ही कुछ अद्भुत शोचनीय हो रहे हैं। परन्तु इसक विषय में हम लोग पाहले ही कभी लिख चुके हैं कि, "अन्य एक विदेशी विद्या के पढ़ने से, जैसी रुचि उसके लेखकों और कवियों की होती हैं, मत विषयक जैसा स्वाच्छन्द्य, ऐहिक विषयों के विचार की प्रणाली, प्राचीन अपाराचित मत के गूढ़ विषयों की अज्ञानता के कारण जैसा कुछ तिरस्कार कि उनके जी में समाया रहता हे उनके लखों का प्राप्त पंक्तयों से प्रकट रहता है, फिर उन्हीं का रातादिन देखने मनन करने से और विद्या के अभाव से उसमें उत्तमोत्तम बातें भरा है, विद्यार्थी के हृदय में यदि ऐसी आभा पड़े और वह पाश्चमाय प्रकाश से प्रकाशमान हो इतर सब अन्धकारमय माने तो इसमें पाश्चय ही क्या है। 'यन्नवे भाजनेलग्नः संस्कारोनान्यथा भवंत', उसके कोर हृदय का अपने मत के विषयों का प्रथम में भाजन न बना, स्वतन्त्र नास्तिकत्व का प्रवेश करा पीछे से पछताना व्यर्थ है, कि इनके आचार विचार समग्र भ्रष्ट हो गये, पुरानी परिपाटा के उन्मूलक हो रहे हैं, प्रशंसनीय उत्तम प्रथा को बिगाड़ा चाहते हैं। इसमें समझाने बुझाने से काम नहीं चल सकता जिनसे हमारे मत से कोई सम्बन्ध नहीं, जो अपने आधुनिक मत को प्रशंसा में फूले नहीं समाते, हमारे विश्वास भक्ति, प्राचार और विचार को मिथ्या भ्रम बतलाते, उनसे कोई आशा सहानुभूति वा सहायता मिलनी कठिन है। अतः जब तक देश अपने बालकों की शिक्षा पर ध्यान न देगा, उसकी रुचि के अनुसार बातें बननी परदेशियों के हाथ से असम्भव है।

बालकों की शिक्षा के विषय में विचार करना और उन्हें अपनी रीति से पढ़ाना देश का परम कर्तव्य है। इधर न ध्यान देने से वे बाते जो हमारी परम स्पृहणीय हैं, हमारे वंश से चली जाँयगी, देश की दशा बदल कर और ही कुछ हो जायगी। क्या आश्चर्य कि कुछ दिनों में यह देश नास्तिकों से भर जाय, और बहुमत जो मुसल्मानों के प्रबल आयात से इस हीन दशा को पहुँच गया है निर्मूल और निर्बीज हो जाय। परन्तु ये बाते किससे कही जाती है। कौन इसका सुनने वाला और करने वाला है। क्या साधारण जन जिन्हें