पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/२४३

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दुर्भाग्यवशात जो दुर्दशा के दिन सम्प्रति भारत भोग कर रहा है उसका स्मरण न करना ही उसके सच्चे हितैषियों के लिये यदि अच्छा कहें तो कदाचित् कुछ अनुचित न होगा, क्योंकि वास्तव में उसका उन्हे स्मरण नितान्त दुःखद है। आज कल तो मानों गोधूली का सा समय है जिसे हम दुःख की रात वा सुख का दिन कह सकते, अथवा न जिसे यथार्थ उन्नति वा अवमति का काल मान सकते हैं, क्योंकि दो चार विषय में जो इधर देश उन्नति भी कर रहा है, तो उधर बीसों बातों में सीमावाह्य अवनति वा सर्वस्वाहा हुआ जाता है। यदि सोचते हैं कि वर्तमान समय के बचे बचाये बुड्डे लोग अधिकांश मूर्ख, दुराग्रही और अनेक मिथ्या विश्वास के फन्दे में पड़े बहुत कुछ देश के अवनति के कारण हैं, तो साथ ही पाश्चात्य शिक्षा सम्पन्न नवीन ज्योतिधारी युवक उनसे अधिक अकर्मण्य, प्रमादी और विपरीत बुद्धि और दुधाचरण वाले लखाई पड़ते हैं। यदि अनेक प्रचलित प्रणाली दूषणीय दिखलाती तो जिस प्रकार उसका सशोधन बिचारा जाता वह उसमे के रहे सहे गुण को भी समूल नाश करने में समर्थ सा समझ पड़ता! और इस भाँति यथार्थ कल्याणप्रद और श्रेयस्कर या किसी ओर दृष्टिगोचर नही होता!!!

अतएव कुछ दिन से अनेक मध्यवर्ती लोगों ने यही सिद्धान्त कर लिया था कि जैसा चर्खा चल रहा है, चलने दो, इसका उखाड़ पछाड़ ठीक नहीं; क्या जाने भला करते कही और भी निकृष्ट फल न हो। यद्यपि उनका ऐसा विचार कैसा ही कुछ अनुचित वा अश्लाध्य क्यों न रहा हो, परन्तु इसके विरुद्ध किसी अन्य दल के न होने से एक प्रकार के स्वास्थ्य का हेत तो अवश्य था, और प्रचलित प्रणाली में जो गुणदोष था उसमे न्यूनाधिक न होने तथा उसके वर्तमान रहने में कोई शंका भी न थी परन्तु अब समय के फेरफार से कुछ और ही अवस्था श्रा पहुंची है, अब एक के स्थान पर अनेक प्रबल दल खड़े हो गये हैं, जिनमें कई बातों मे कई का विचार तो शत्रुता की सीमा को पहुंचा, कोई कोई मध्यवर्ती कोई न्यायाभिलाषी और शेष

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