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हमारे धार्मिक, सामाजिक वा व्यावहारिक संशोधन

होने से कहीं और भी अनिष्ट फल न होकर देश के लिये विशेष हानिकारी हो और खेद यह है कि इन्हीं के द्वारा सब नवीन संशोधन के प्रस्ताव होते चाहे वे किसी विषय से सम्बन्ध क्यों न रखते हों, सो भी किसी दूसरे प्रकार से नहीं वरंच—केवल राज नियम द्वारा कि जिसके विधि होने के पश्चात किसी को कुछ कर्तव्य ही शेष नहीं रहता!

अवश्य ही राजा धर्म्म का भी नियन्ता है, परन्तु साम्प्रति भिन्नधर्म्मी राजा के होने से प्रजा के विश्वास के विरुद्ध राजा का विश्वास है। उनका शील, आचार, विचार और सभ्यता दूसरे देश धर्म और समाज से सम्बन्ध रखती है, और फिर उसी को अनुमोदन और अंगीकार करने के लिये इस देश का एक भाग अत्यन्त उत्सुक और उत्कण्ठित है। पुराने चाल के लोग बिचारे जानते ही नहीं कि समाज किस पशु का नाम है अथवा उसके शिर पर कै सींग होती हैं। न वे इसके लाभ के जानकार, और न इसमें स्वार्थ लेते वा योग देते! रहे फिर वही नये साँचे के ढले लोग जिनके वृतान्त ऊपर वणित होई चके हैं। वस जो वे कहे सब सुने, और जो करें उसी को राजा और प्रजा देखें। फिर सौ पचास मनुष्यों के काथ्य' का प्रभाव करोड़ों मनुष्यों पर पड़ना कैसा कुछ भयंकर है, यह सभी सहृदय को समझना सुलभ है, परन्तु क्या किया जाय कि जो लोग काय्य करेंगे, वे फलसिद्धि के भागी होइगे जो चुप चाप बैठे हैं अनिष्टफल का स्वाद चख सिर पर हाथ धर रोबेईगे इसमें विचित्रता ही क्या है! अब जहाँ समाज की यह दशा हो यहाँ सामाजिक विषय के सुधार की चर्चा ही करना व्यर्थ है।

अवश्य ही भारत की पैतृक सम्पत्तिधर्म है, अतः इसके अनेक समाज भी संगठित हैं, किन्तु वे जीर्ण शीर्ण और अत्यन्त छिन्न भिन्न हो केवल नाम मात्र को शक्ति रखते हैं। अतः उनकी संज्ञा भी समाज के स्थान पर जाति होनी चाहिये, अथवा एक प्रकार का परिवार क्योंकि उसमें सर्व साधारण व्यक्ति का अधिकार कुछ भी नहीं है, वरञ्च यदि है तो विशेषों ही का। इसके अतिरिक्त हमारे धर्म की भी शाखायें असंख्य हो गई हैं, तब उसकी डालियों की कथा कौन कहे, आर्यधर्म के पौराणिक शाखा की एक डाली वैष्णव ही को क्या कोई बतला सकता है, कि उसमें कितनी टहनियां फूट गई हैं? और मूलमत का प्रभाव यहाँ आकर किस दशा को पहुँचा है? शैव और शक्ति का बैर जाने दीजिये, और वैष्णवों की चारों