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प्रेमघन सर्वस्व

अपने वास्तविक सदाचार के सच्चे सुनहरे और जड़ाऊ गहने जिनपर मूर्खता की मैल जम गई है देकर उसे मोल न लेते, वे इस प्राचीन प्रासाद तुल्य समाज का संस्कार वा झाड़-पोंछ मरम्मत वा चूना कलई करने के बदले गिराकर एक नया फूस का अँगरेजी बंगला बनाने के अर्थ न विहवल होते। यदि वे भारत को यूरप न बनाकर केवल वहाँ के उत्तम विषयों के संग्रह से इसकी शोभावृद्धि करने मात्र का मनसूबा रखते, यदि वे स्वयम् क्रिस्तान वा म्लेच्छाचारी न बन उनके केवल उत्तम गुणों ही से सुसम्पन्न हो आत्मोन्नति के लोलुप लखाई पड़ते, यदि ने अपने समाज में मिले हुये स्पष्ट और प्रकाशभाव से आन्दोलन कर उसे आगे बढ़ाने के अर्थ बद्धपरिकर दिखाते-न स्वयम् उसे छोड़ अलग होने को, यदि को इस नौका की पतवार बन पीछे से उचित मार्ग से ले चलने के अर्थ उद्योगी होते तो अवश्यमावश्य इसकी दशा शीघ्र ही प्रशंसनीय होती, परन्तु में तो उसे छोड़ अपनी और उसकी दोनों की दुर्दशा ही को अपनी इतिकर्तव्यता मानते हैं! ये नहीं चाहते कि इम अपने उद्योग से इस पुरानी वाटिका के कराटक निकाल प्राचीन फूल-फल वाले वृक्षों को गोड़ और सींच कर तथा नवीन उत्तमोत्तम वृक्षों से भी इसे युक्त करें, वरञ्च एक साथ सबको काट कर केवल दूब लगाकर एक रंग हरा कर दिखलायें जैसे कि स्वाभाविक सब भूमि हरी है! ठीक यही दशा आजकल के भारतीय समाज, संस्कार वा धर्म, संस्कार, व्यक्ति और समाजों की भी है, जो वास्तव में देश की रही सही सम्पत्ति मर्यादा और कायरता चिन्ह, चक्र को भी मिटा देगी।

अस्तु ऐसे ही अनेक जन अपना और अपने समाज का कुछ कुछ संस्कार और संशोधन कर अब समस्त देश वा समस्त पार्यजाति मात्र की कुरीतियों का संशोधन करना चाहते हैं, यद्यपि वह केवल वागजाल मात्र फैलाते और सच्चे चित्त से कोई उचित उद्योग तत्पर नहीं दिखलाते, वरच केवल अपनी ख्याति वा उस दृष्टान्त के अनुसार जैसे किसी सोहागिन स्त्री ने किसी विधवा को प्रणाम किया तो उसने आशीर्वाद दिया, कि "बहन तुम भी हम सी हो" के अनुसार ने अपनी शुभचिन्तकता दिखलाते हैं, अर्थात् अपने ही समान औरों को भी बनाया चाहते हैं। शोक है कि उनमें इतनी योग्यता वो सहानुभूति नहीं कि ने स्वयम् कष्ट उठाकर हमको अच्छे मार्ग पर ले चलते, ने हमारे लिये अपनी हानि कर हम से मिले इस योग्य रहते कि