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हमारे धार्मिक, सामाजिक वा व्यावहारिक संशोधन

उनपर हम विश्वास करते और उनकी बात मानते, अच्छा होता यदि ने सुकोमल वचनों के द्वारा हमें उपदेश करते और केवल विशेष विशेष कुरीतियों को स्वयम् दूर बहाते, वा केवल उसी अंश में ने हमसे आगे बढ़ते, वे हमारे समाज के दुर्गुणों और कुप्रबन्धों के निकालने को धर्म रीति पर आन्दोलन करते और उसके प्रबन्ध मे स्वयम् हस्तक्षेप करते, न कि बुढिया मारने के लिये यम को परचाते!

परन्तु खेद है कि ने अनेक अंश में योग्य और अच्छे होकर भी अपनी अदूरदर्शिता से अपने को इस योग्य न रख सके कि सर्वसामान्यजन उनके उचित बातों को भी उपदेश बुद्धि से सुने, भला पापिष्ठा रामाबाई का धर्मोपदेश कोई सच्चरित्र स्वधर्मनिष्ठिता आर्यललना क्योकर मान सकती है, जब कि वह स्वयम् अपने ही को हिन्दुवाला का आदर्श न बना सकी, वह सौ विधवात्रों का आश्रम क्यों न बनाये कब कोई आर्य साथ्वी विधवा उसमें पदार्पण करना उचित समझेगी? किसी पादरी साहिब की बनाई रामचरित्र वा कृष्णचरित्र नामक पुस्तक को कब कोई सुविश भार्ग सन्तान प्रेम से पड़ सकता है? यथा

गतानुगतिको लोकः कुट्टनी मुपदेशनीम्।
प्रमाणयति नो धर्मे यथा गोघ्नमपि द्विजम्॥

सारांश इन समाज सशोधकों को स्वयम् अपने उपदेश से कृतकार्यन होने की ऐसी दुराशा हो गई है कि ने इस ओर मुख भी नही मोड़ते, यद्यपि यह भी उनकी भूल ही है, क्योंकि सत्यश्रम से किये कार्य का फल तो अवश्य ही होता है, और यही उसका उचित उद्योग भी है। पर उन्हे इसमे दुराश के अतिरिक्त अधिक श्रम भी स्वीकार नहीं है अतः उन्हें 'हर्रा लगे न फिटकरी और रंग चोखा होय' वाली कहावत की युक्ति निकालनी पड़ी, चाहे उससे लाभ के स्थान पर हानि ही क्यों न हो, परन्तु कृतकार्यता का यश मिले, अतः वे बात बात मे राज-नियम की सहायता लेने के अर्थ बद्ध परिकर होते हैं और इस अवस्था में उनके समाज वा सहयोगी जन के अतिरिक्त अन्य न्याय-प्रिय जन भी हाँ में हाँ मिलाने को उद्यत हो जाते हैं।

भारत में प्राचीन काल से चिर प्रचलित प्रणाली सती होने की थी, और सच्ची सती स्त्रियों के लिये कदापि वह अनुचित भी न थी क्योंकि अब भी

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