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प्रेमघन सर्वस्व

अनेक सच्ची पतिव्रतायें अपने प्यारे पति के वियोग में बिना बिलम्ब के अन्य उपायों से प्राणान्त करती ही हैं; हाँ, उचित मार्ग से धारण किये जाने पर अनुचित रीति का अवलम्बन करती है, पर क्या कोई कह सकता है कि इसके प्रचार के समय में केवल ऐसी ही सच्ची स्त्री मात्र सती होती थी अन्य नहीं, अथवा इधर मूर्खता के दिनों में क्या उससे कुछ अन्याय भी नहीं होता था? नहीं, मुसलमानी राज्य के फैलाये अन्धकार के दिनों से कुछ-कुछ अत्याचार इस अंश में भी हो जाया करता था; यद्यपि उसकी संख्या न्यूनाति न्यून ही थी, क्योंकि अनेक मूर्खाधिराज जिनके घर में एक दो सती हो गई होती, इससे भी अपना कुल धर्म सा अनुमान करते, और विधवा को जिसे कि उसके पति के मरते ही यह संकल्प होता, यदि उत्तेजना न देते तो विशेष वारण की चेष्टा भी न करते रहे हों, अनेक बाल विधवाओं को भी अपने गर्हित जीवन से यह गति अच्छी ही अनुमान होती थी, और वस्तुतः जिन जातियों में पुनर्विवाह प्रचलित नहीं है उसके लिये अच्छा ही था; और क्या पाश्चयं कि उनके वजन भी कभी कभी इसी को एकमेव कल्याण मार्ग देख उसके इस अनुष्ठान में सहायक हो जाते रहे और ठीक अंगरेजों के बेकाम घोड़े को गोली मार देने, वा डाक्टरों के जीवनाशा विहीन रोगियों को कष्ट से बचाने के लिये विषैली औषधि के प्रयोग के समान उसका जीवन सार्थक इसी में समझते रहे हों, और जलने के कष्ट से कातर विधवाओं, को चिता से न कूदने देते रहे हों, यद्यपि ऐसी राक्षसी लीला कदाचित ही कहीं होती तो भी यह जाति के लिये अवश्य ही कलंक की कारण थी, जिस कारण राजनियम द्वारा यह निषिद्ध ठहराया गया और अनेक; सच्ची सती और पतिव्रतात्रों को भी इस महत् धर्म कृत्य के करने का अवसर नहीं है वरञ्च उन्हें किसी कुत्सित रीति से अपना मनोरथ सफल करना होता है!

इसी भाँति अनेक राजपूत आदि जातियों में उसी समय कन्याओं को मार डालने की भी एक कुत्सित रीति प्रचरित हो गई थी। अवश्य ही मनुष्य मात्र को इस कुप्रथा का स्मरण शोक और आश्चर्यदायक है परन्तु अदि पद्मिनी, अश्रुमती वा कृष्णकुमारी आदि के स्वजनों की दशा अनुमान कीजिये, वा उनके आत्मा की सम्मति लीजिये तो अवश्य ही वह आश्चर्य बहुत ही न्यून हो जायगा, क्योंकि उस विपत्ति के समय म्लेच्छों को विवश हो लड़की देने से अनेक अभिमानी क्षत्रियों को यही