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प्रेमघन सर्वस्व

पर विश्वास कर इसे झुठलाया तो प्रसशित महाराज ने इसके विषय में एक मुद्रित पत्र सब समाचार पत्र सम्पादकों के निकट भेज कर अपनी सम्मति प्रकाशित की थी, जिसे हम आनन्द कादम्बिनी कार्यालय से लेकर यहाँ उद्धृत कर देना भी उचित अनुमान करते हैं:—

"सम्पादक आनन्द कादम्बिनी"

महाशय,

सहवास विल पर अपने सम्मति का एक पत्र आप के पास भेजता हूँ। कृपा करके इसे अपने देशहितैषी पत्र में छाप कर कृतार्थ कीजिये।

श्री लक्ष्मीश्वरसिंह शर्मा
महाराज दरभंगा।"

यद्यपि जब से आर्य शास्त्रों के विरुद्ध म्लेच्छाचार प्रचारक नवीन मतप्रवर्तक लोगों ने भारत में अपना अपूर्व उत्पात आरम्भ किया तभी से सनातन धर्म सभाओं की सृष्टि हुई, और उनकी वृद्धि के संग इनकी भी वृद्धि हुई, और यदि ब्रह्मसमाज के विरोध में दस पाँच की संख्या थी, तो दयानन्दी आर्यसमाज के विरोध मे सैकडो बनी, और अब उन सब को उचित रीति पर चलाने एवम् उन्हें पुष्ट कर उनकी शक्ति बढाने के लिये 'भारत धर्म महामण्डल' की भी सृष्टि हुई है, परन्तु इस वृहत् समूह पर शासन करने वाली ये सभागे कहा तक कृतकार्य हुई हैं, वा इनके द्वारा समयोचित कौन सा नवीन अनुष्ठान आरम्भ हुआ, विचारने से बहुत ही निराश होना पड़ता है। 'क्या किया जाय दुर्भाग्य से जो सब भाँति पुराने हैं, वे कुछ भी नवीन कृत्य करना न तो जानते, और न किसी हित की शिक्षा ही मानते, वे केवल भाग्य भरोसे रहने के अतिरिक्त कार्य क्षेत्र में आना ही नहीं जानते फिर:—

कर्म प्रधान विश्व करि राखा जो जस करै सो तस फल चाखा॥

अस्तु, अब तक इस प्रालस्य और उदासीनता से अनेक अन्य मूल्यवान सामग्री के नाश होने पर भी हमारी जातीयता और धर्म का नाश नहीं हुआ था, परन्तु अब काल क्रम से वह समय आ गया है कि यदि इसी भाँति इधर से उपेक्षा कुछ दिन और रही तो निश्चय अब इन दोनों के भी नाश होने में विलम्ब नहीं है।

शोक है कि यदि कोई 'आर्यजाति' हितैषी नामक शत्रु चिल्लाते, कि भारत की स्त्रियाँ बन्दीगृह निवासिनी हैं, उन्हें स्वच्छन्द कराना चाहिये; तो