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हमारे धार्मिक, समाजिक वा व्यावहारिक संशोधन

कोई कहते कि विधवा-विवाह बलात् करा देने की व्यवस्था करा देनी उचित है। यदि कोई बकता कि हिन्दू लोग तो विधवाओं से बलात् एकादशी आदिक अनेक कठिन व्रत कराकर उन्हें इतना आशक्त कर देते किं वे स्वयम् थोड़े दिन में मर जातीं, तो कोई रोता कि अजी निराश रोगियों को भी तो अधजले देकर और नितान्त बूढ़े बूढ़ियों को 'हरी बुला बुला कर' मार डालते हैं। अनेक हिन्द समाज संशोधक अर्थात् सत्यानाशक चाहते कि हिन्दुओं में भी मुसलमान क्रिस्तान आदि समाज की भाँति "तलाक" अर्थात् विवाह सम्बन्ध तोड़ने की भी परिपाटी प्रचरित की जाय, तो अनेक जन इस सोच में मर रहें है कि पिता के कन्यादान दिये हुये पति को यदि कन्या न चाहे, तो पति के साथ जाने में वह राजाज्ञा द्वारा बाध्य न की जाय! यों ही बहुतेरे चिल्ला रहे हैं कि देवधन के विषय में भी कोई राजनियम विधिवद्ध होना चाहिये, क्योंकि इसमें बड़ा अन्धेर है इसी भाँति कोई कहता है कि वाल्यविवाह उठाओ, तो कोई समझाता कि भाई विवाह व्यय तो घटायो, अब इनमें से अनेक बातें तो अवश्यही अनर्गल एवम् नितान्त निर्मलक केवल प्रस्तावकारियों के विकृत मस्तिष्क की प्रमाणस्वरूप विशुद्ध प्रलाप मात्र हैं, परन्तु वस्तुतः क्या सभी वैसी ही हैं? अथवा उनमें से किसी में भी कुछ संशोधन की आवश्यकता नहीं है? और यदि है, तो क्या किसी के अर्थ श्रार्य गण कुछ भी सुधार सोचते, करते वा उसके योग्य होने के अर्थ उद्योगी हैं और यदि नहीं, तो क्या उसके सुधार के लिये कोई अन्य उपाय का होना भी उचित है? यदि है, तो क्या राजनियम के अतिरिक्त सुलभ कोई दूसरा और भी है? हम लोग कदापि स्वप्न में भी नहीं चाहते कि अपने धार्मिक और सामाजिक विषय में भी राजनियम के वश हों परन्तु उसी भाँति यह भी कोई मेधावी कैसे चाहेगा कि चाहे कुरीति और कुप्रबन्ध से समाज वा जातिका सर्वनाश होजाय परन्तु राज नियम द्वारा कदाचित् सुधार न हो। अवश्य ही यदि समाज में इतनी शक्ति वा योग्यता नहीं है कि वह इन करीतियों के दर करने की स्वयम् कुछ भी चेष्टा करे, तो राजनियम द्वारा भी सुधार न होकर कुरोति और कुप्रबन्ध से निरन्तर हानि पाकर किसी जाति वा समाज का अधःपतन कैसे कुछ दुर्भाग्यता का कारण है।

पूर्वोक्त प्रस्ताव अब न केवल हमारे विपक्षियों की ओर से सामान्य रीति पर आन्दोलन किये जाते, वरञ्च यथा विधि पूर्ण परिश्रम और यथोचित रीति