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प्रेमघन सर्वस्व

पर हो रहे हैं, उनमे अनेक विषयों पर भारतसाम्राज्य को भी दशावधान होना पड़ा है, कई प्रस्ताव व्यवस्थापक सभाओं तक पहुँचे, और कुछ पर विचार आरम्भ हैं, और यहाँ हमारे भोले भाइयों के समीप केवल एक ही गुरु मंत्र है, "गवर्नमेण्ट को कदापि हमारे धार्मिक वा सामाजिक विषय में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये" परन्तु उन्हें चेतन्य होना चाहिए कि ईश्वर की कृपा वा कोष से अब वह समय आ गया है, कि अनेक जन आप के प्रतिकूल प्रार्थना करते और प्रमाणित करने को सन्नद्ध हैं कि यह वास्तव में अन्याय है, और इसका रोकना राजा का मुख्य धर्म है। सौभाग्यवशात् हमारा राजा कदापि इन विषयों में हस्तक्षेप करना भी नहीं चाहता, परन्तु जहाँ उसे निश्चय हुआ कि इस कुरीति में प्रत्यक्ष हानि है, तो वह केवल आप के पूर्वोक्त गुरुमंत्र जपने से नहीं मान सकता। कल ही के भूतपूर्वलाई लैन्सडाउन का इस विषय में मत स्मरण कीजिये, और ईश्वर के लिये उस गुरुमन्त्र का भरोसा छोड़िए, यदि आप नहीं चाहते कि राजनियम के अड़-खड़े में निकाले जाँय तो अड़ियलपन की बात भूल, दाँत और हाथ पाँव चलाना छोड़, आँखे खोलिये और सीधी चाल से उचित मार्ग पर चलिये। अपना प्रबन्ध आप कीजिये, अपनी न्यूनता की वृद्धि और हीनता की पूर्ति और दोष का त्याग कीजिए, और कराइये। अपने भूले भाइयों को समझाइये। अपने ऊपर उनके सुधार का बोझा उठाइये, उनके लिये कुछ अपने समय, साहस, और अर्थ का व्यय कीजिये; शरीर को कष्ट दीजिये, पुराने अन्धकार को छोड़ टुक नये उँजेले में आइये, संसार की दशा और प्रवाह के अनुसार अनुसरण करना प्रारम्भ कीजिए। केवल कुढ़ कर रह जाने से, वा अपने अपनी ही बात कहने औरकी न सुनने से आप कदापि कृतकार्य न होयेंगे, वरञ्च अपने प्रतिकूल फल पा पा कर मारे शोक के विक्षिप्त हो जायेंगे।

यद्यपि भारत की दशा अब अत्यन्त हीन हो रही है, तो भी अद्यापि वह करोड़ों रुपये के अटकल अकेले दान विषय में व्यय करता है; परन्तु क्या आज उस दानश्रद्धा के स्थिर रखने के लिये भी कुछ द्रव्य कहीं से व्यय होता है? जिस धर्म के मूल पर उसकी स्थिति है, क्या उसकी रक्षा के कार्य में भी कभी कानी कौड़ी लगती है? दूर न जाकर यदि गयावाल, प्रयागवाल, मथुरा के चौबे, काशी के धाटिये, बा पुजारी लोग, अथवा हमारे विन्ध्याचल के पण्डों ही की दशा पर दृष्टि दीजिये, तो क्या न्यून खेद होता है, कि जो लोग लाखों रुपये प्रति वर्ष धर्मखाते का खाते हैं, और धर्म ही से अपने