पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/२५७

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वीर पूजा


यद्यपि वीर देशों तथा वीरता-गुण-विशिष्ट समाज में वीर पूजा की प्रथा प्राचीन है, तौभी आजकल विदेशियों की चालैं देख ही कर हनुमानजी के समान हमारे देशबान्धव अपनी प्राचीन पद्धति को नवीन बुद्धि से मान्य मानते अथवा उसको उचित समझते हैं। हम लोग वीरवंश हैं, भारत वीर देश है, यद्यपि इसमें किसी को सन्देह हो, तो है के स्थान पर था, कह देने से कदाचित् फिर जिह्वा सञ्चालन का अवसर उसे न रहेगा; क्योंकि महाभारत भारत ही में हुआ था, और कई सौ वर्ष तक रुधिर की नदियाँ यहीं प्रवाहित होती रही। उस समय जब कि संसार में लोग केवल ढेले पत्थर और लाठी सोंटेडी को अस्त्र शस्त्र अनुमान करते थे, हमारे यहाँ धनुर्वेद के विद्यमान थे। सुतराम् यदि हम साहंकार यह कहें कि हम वीर वंश है, तो कोई वारण करने वाला नहीं है। हाँ चाहे कोई मुसकरा कर यह क्यों न कहा दे, कि—"हमारे दादा ने घी खाया था, हमारा हाथ सूँघ लो की कहावत के अनुसार तुम पुरानी कहानी क्यों गा रहे हो? आज अपनी दशा देखो।" तो यद्यपि इसका सीधा सा उत्तर यही है, कि आज बृटिश गवर्नमेंट के प्रभाव से प्रथम तो इसकी आवश्यकता ही नहीं पड़ती; पर जहाँ पडती है, वहाँ कुछ देख भी पड़ती है, किन्तु हाँ, बिना अभ्यास के उसका बीज अवश्य नाश होता जाता है। यद्यपि व्यर्थ कट्टरपन और कलहप्रियता अथवा उपद्रवशीलता तो न हममें कभी थी, न अब है और न हम उसे अपने में लाने के आकांक्षी, परन्तु यथार्थ वीरता और छलछद्महीन शूरता तो केवल हमी लोगों में थी और अब भी है; वरञ्च सत्य तो यह है कि इस धर्म युद्ध और कलङ्कशून्य शूरता ही के कारण छली और कपटी वैरियों से हमें सदा नीचा देखना पड़ा, किन्तु वास्तविक वीरोचित बानि को हमने कभी नहीं छोड़ी।

अस्तु, सुरेंद्र, शङ्कर, और दुर्गा की पूजा हमारे यहाँ वीर पूजा ही थी। पीछे भैरव, वीरभद्र, और हनुमान की पूजा भी वीर पूजा ही थी, और है। परन्तु समय के फेरफार और प्रथा परिवर्तन से अब उसका रूप बदल गया।

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