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प्रेमघन सर्वस्व

इसके अतिरिक्त बहुतेरों मे देवता की भावना तथा श्रद्धा और विविध कामनाओं के कारण उसके रूप में बहुत विभिन्नता हो गई है। स्पष्टतः यों समझिये कि महाराज श्री रामचन्द्र जी की रामनवमी का उत्सव छोड़ कर रामलीला और विजयादशमी का त्योहार हमारी वीर पूजा का प्रत्यक्ष प्रमाण है। क्योंकि देवबुद्धि की पूजा उनके मन्दिरो में होती है राललीला और विजयादशमी की पूजा विशुद्ध वीर पूजा है। शमी वृक्ष में शमीरमा रानी की पूजा वीर पूजा ही का जाज्वल्य प्रमाण है। फिर उसी दिन शस्त्रादि पूजा, वीर पूजा होती है (भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी की भी वीर पूजा होती है, जो मथुराजी और ब्रज के आस पास के नगर ग्रामादि में विशेष प्रचरित है, और जो "कंसबध" के नाम से प्रख्यात है। किन्तु बहुत दिन होने के कारण यह पूजाये भी अब केवल धार्मिक पूजाओं मे परिगणित हो गई अतएव साम्प्रतिक समय के अनुसार किसी आधुनिक योग्य वीर की पूजा वा उत्सव उसकी अमल कीर्ति के स्मरण और सामाजिक उन्नति के अर्थ प्रचरित करना भी सर्वथा उचित ही है। फिर वह भी किसी ऐसे प्रसिद्ध मनुष्य वीर की, जो नये रङ्ग ढङ्ग के सब प्रकार से अनुकूल हो, और जिसमे सब सम्प्रदाय के नवीन मस्तिष्क वाले प्राय सन्तान जो बाहर को छोड़कर अन्तःकरण से भी साहिब लोग नही हो गये हैं, बिना पश्चिमी पादत्राण परित्याग करने के कुर्सियों पर बैठें बिठाये कर सके। तब प्रश्न यह उपस्थित होता है, किवह पूजनीय वीर कौन हो?

इधर के वीर नरपतियों में सर्वश्रेष्ठ महाराज विक्रमादित्य और उनसे उतर कर शालिवाहन ही हुए और कदाचित् आर्य साम्राज्य का गौरव सूर्य्य इसके पश्चात् ढलता ही चला गया, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण उनका शक और सम्वत् है। अस्तु, यदि इन्ही की पूजा प्रचरित होती, तो आज सारे भारत की एक ही प्रधान वीर पूजा होती परन्तु सारे भारत को एक मे मिलाने का जैसे कोई उपाय नहीं, तैसे यह भी समझिये, और जब फिर आज भारत भिन्न भिन्न जाति और थोकों में विभक्त है, तो थोक-थोक की वीर पूजा भी ठीक ही है। निदान कुछ दिनों से महाराष्ट्रों ने वीरवर महाराज शिवाजी छत्रपति की पूजा आरम्भ की है, जिसको देख कर अब बङ्गालियों ने भी अपने यहा महाराज शीलादित्य की पूजा आरम्भ कर दी। अब यदि महा राज शिवराज ही की पूजा समस्त भारत करता तो क्या हानि थी, वरञ्च एक प्रकार उचित ही था, परन्तु वह महाराष्ट्र महाराज्य स्थापनकर्ता मान